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तृतीय खण्ड
शब्दोल्लेखरहित होता है तब मतिज्ञान' है ।
शास्त्रदृष्टि से मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान इन्द्रिय मनोजनित होने के कारण — साक्षात् आत्मा द्वारा न होकर अन्य निमित्तों के बल पर उत्पन्न होने से परोक्ष कहलाते हैं । इनमें नेत्र आदि इन्द्रियों से होनेवाले रूप आदि विषयों के ज्ञान भी आ जाते हैं । फिर भी नेत्रादि - इन्द्रियजन्य रूपादि विषयक ज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष गिने जाते हैं, अतः शास्त्र को भी उन्हें प्रत्यक्ष मानना पड़ा है । पारमार्थिक दृष्टि से ये ज्ञान परोक्ष होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष माने जाने के कारण उन्हें सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है ।
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शास्त्रानुसार पारमार्थिक ( वास्तविक ) प्रत्यक्ष तीन प्रकार के हैं अवधि, मनःपर्याय और केवल । ये तीनों इन्द्रिय एवं मन किसी की भी अपेक्षा रखे बिना केवल आत्मशक्ति से प्रकट होते हैं । अतः ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं ।
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अवधि का विषय रूपी (मूर्त) द्रव्य है अर्थात् अवधिज्ञान रूपी द्रव्यों को प्रत्यक्ष करता है ।
अवधिज्ञान के असंख्य भेद हैं । ऐसा उच्च कोटि का भी अवधिज्ञान होता है जो मनोद्रव्य को ग्रहण कर सकता है और कार्मिक द्रव्यों को भी जान सकता है ।
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मन: पर्यायज्ञान भी रूपी द्रव्यों को ही ग्रहण करनेवाला ज्ञान है । परन्तु रूपी द्रव्य दूसरा कोई नहीं, केवल मनोद्रव्य (मनरूप से परिणत पुद्गल) ही है । कहने का अभिप्राय यह है कि मनः पर्यायज्ञान मनुष्यलोक में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्य को ग्रहण करता है । इस कारण मन: पर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवाँ भाग कहा है ।
१. शब्दोल्लेख का अर्थ है व्यवहारकाल में शब्दशक्ति के ग्रहण से उत्पन्न होना । अर्थात् श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेतस्मरण और श्रुतग्रन्थ का अनुसरण अपेक्षित है । ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति में शब्दस्फूर्ति होने पर भी वे ज्ञान इस प्रकार के शब्दोल्लेखवाले नहीं है ।
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