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जैनदर्शन
अथवा शास्त्रवचन भी परोपदेश ही है) पैदा होता है और उसमें, पहले कहा उस तरह, शब्द एवं अर्थ के संकेत की आवश्यकता है । मतिज्ञान द्वारा ज्ञात वस्तु को दूसरे से कहने के लिये जब हम मन ही मन उस ज्ञान को भाषा के रूप में परिणत करते हैं तब भाषा के रूप में परिणत होने के कारण वह 'श्रुतज्ञान' नहि हो जाता उस समय भी वह तो 'मतिज्ञान' ही कहलाता है; 'श्रुतज्ञान' तो भाषा द्वारा पैदा होने से ही होता है । मतिज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है और श्रुतज्ञान से जाना हुआ भी भाषा में रखा जा सकता है। श्रुतज्ञान से ज्ञात पदार्थ पर विशेष विचार-विशेष चिन्तन-विशेष ऊहापोह बुद्धिरूप है और बुद्धि 'मतिज्ञान' है । वैनयिकी बुद्धि, जिसका पहले उल्लेख हो चुका है, विशेष विचाररूप है और मतिज्ञान है ।
इस प्रकार मतिज्ञान की व्यापकता होने पर भी उसकी संस्कारिता, पुष्टिमत्ता और बलवत्ता का आधार श्रुतज्ञान है । प्रगति और उन्नति के मार्ग पर वह हमें आरूढ़ करता है । पूर्वजों एवं साथियों के अनुभव का लाभ यदि हमें न मिले तो हमारी अवस्था पशुओं की अपेक्षा भी अधम हो जाय । इसलिये श्रुतज्ञान का क्षेत्र भी अत्यन्त विशाल है । यद्यपि मतिज्ञान के बिना श्रुतज्ञान खड़ा नहीं हो सकता किन्तु श्रुतज्ञान के बिना मतिज्ञान पशु से अधिक उन्नत श्रेणी पर नहीं ले जा सकता । इस प्रकार मति और श्रुत दोनों एकदूसरे में ओतप्रोत होने पर भी दोनों के बीच का भेद समझा जाता है ।
मति और श्रुत संसार के समग्र प्राणियों में-सूक्ष्म जीव से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सब जीवों में है । शास्त्र के आधार पर मति और श्रुत का विषय सब द्रव्य हैं, अर्थात् रूपी एवं अरूपी सब द्रव्यों का मति और श्रुत द्वारा विचार किया जा सकता है और वे जाने जा सकते हैं । परन्तु ये दोनों ज्ञान किसी भी द्रव्य के परिमित ही पर्याय जानते हैं। इतना अवश्य है कि मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुत का पर्यायग्राहित्व अधिक है।
मतिज्ञान इन्द्रियजन्य है और साथ ही मनोजन्य भी है । मन स्वानुभूत अथवा शास्त्रश्रुत सब मूर्त-अमूर्त द्रव्यों का चिन्तन करता है । अतः मनोजन्य मतिज्ञान की अपेक्षा से समग्र द्रव्य मतिज्ञान के विषय कहे जा सकते हैं। मानसिक चिन्तन जब शब्दोल्लेखसहित होता है तब श्रुतज्ञान है और जब
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