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तृतीय खण्ड
१८३ से-चेष्टाओं से एक-दूसरे को समझा देने का अथवा उत्तर दे देने का प्रचार है । इससे जो बोध होता है वह श्रुतज्ञान है ।
शब्द सुनकर जिस प्रकार अर्थ की उपस्थिति होती है उसी प्रकार संकेत से भी अर्थ की उपस्थिति होती है । जिस तरीके शब्द द्वारा ज्ञान उत्पन्न होना है उसी तरीके से संकेत द्वारा भी ज्ञान पैदा होता है । अतः संकेतजन्य ज्ञान शब्दबोध जैसा है और इसीलिये वह श्रुतज्ञान है।
शब्द का सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादिरूप मतिज्ञान है, परन्तु उससे बोध (शब्दबोध) होना श्रुतज्ञान है । चेष्टा, संकेत अथवा संज्ञा का देखना चाक्षुष अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे अर्थ की उपस्थिति होना—अर्थ का बोध होना श्रुतज्ञान है । इसी प्रकार संकेत का श्रवण श्रोत्रेन्द्रिय का अवग्रहादि मतिज्ञान है, परन्तु उससे शब्दबोध जैसा अर्थबोध होना श्रुतज्ञान है ।
मति और श्रुत में भेद क्या है ? -इसके बारे में विशेषावश्यकभाष्य के टीकाकार कहते हैं कि 'इन्द्रिय और मन द्वारा उत्पन्न होनेवाला सब प्रकार का ज्ञान 'मतिज्ञान' ही है सिर्फ परोपदेश और आगम-वचन से पैदा होने पर वह 'श्रुत' कहलाता है, जो (इस प्रकार की विशेषतावाला) मतिज्ञान का एक विशिष्ट भेद' ही है।
सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि मति और श्रुत में क्रमशः बुद्धि और विद्वत्ता जैसा भेद है । मतिज्ञानी को बुद्धिमान् और श्रुतज्ञानी को विद्वान् कह सकते हैं । विद्वान् की मति श्रुत से रँगी हुई होती है । इस प्रकार ये दोनों एकरस बन जाते हैं ।
मतिज्ञान निमित्त के योग से स्वयं उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, अर्थात् उसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती, जबकि श्रुतज्ञान परोपदेश से (आगम
१. "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तद्वारेण उपजायमानं सर्वं मतिज्ञानमेव । केवलं परोपदेशाद्, आगमवचनाच्च भवन् विशिष्टः कश्चिन्मतिभेद एव श्रुतं, नाऽन्यत् ।"
-मलधारिरचित विशेषावश्यकभाष्य-टीका गाथा ८६. "न मत्यभ्यधिकं श्रुतम् "। -सिद्धसेन दिवाकर, निश्चयद्वात्रिंशिका श्लोक १२.
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