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जैनदर्शन
तब उसका दुःख कुछ हलका हुआ और गुरु के पास जाकर मन में दुष्ट संकल्प करने से जो व्रतभंग हुआ था उसके लिये प्रायश्चित्त किया । यह श्राविका की पारिणामिकी बुद्धि का उदाहरण है ।
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इस प्रकार हमने मतिज्ञान देखा । अब श्रुतज्ञान को देखें । श्रुतज्ञान अर्थात् श्रुत यानी सुने हुए का ज्ञान । इसका एक अर्थ होता है शास्त्र - आगम का ज्ञान । सामान्यतः किसी भी विषय के शास्त्र अथवा ग्रन्थ से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । सदुपयोग अथवा दुरुपयोग किसी भी शास्त्र अथवा ज्ञान का हो सकता है । मोक्ष में उपयोगी होना किसी शास्त्र का नियत स्वभाव नहीं है । अधिकारी यदि योग्य और मुमुक्षु हो तो लौकिक समझे जानेवाले शास्त्र को भी वह मोक्ष के लिये उपयोगी बना सकता है और अधिकारी योग्य न हो तो आध्यात्मिक श्रेणी के शास्त्र भी उसके पतन में निमित्त हो सकते हैं । फिर भी विषय और प्रणेता की योग्यता की दृष्टि से शास्त्र अवश्य अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं ।
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व्यापक रूप से विचार करने पर श्रुतज्ञान का अर्थ शब्दजन्य ज्ञान अथवा संकेतजन्य ज्ञान होता है । शब्द सुन करके अथवा लिखा हुआ पढकर के जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है ही, परन्तु संकेत द्वारा होनेवाला ज्ञान भी श्रुतज्ञान कहलाता है । जैसे कि, किसी के हाथ के इशारे से अथवा किसी के खाँसने से जो समझ में आता है वह श्रुतज्ञान है । यदि कोई अपने मुँह के आगे हाथ रखे तो उस संकेत से जो खाने का अर्थ समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है । ऊपर उठे हुए अक्षरों पर हाथ फिराने से एक अन्धा जो पढ़ता है - समझता है वह श्रुतज्ञान है । तार के 'कट्- कट्' शब्दों पर से जो समझा जाता है वह श्रुतज्ञान है । आमने-सामने दो मनुष्य एक-दूसरे की संज्ञाओं से जो कुछ समझते हैं वह श्रुतज्ञान है। खांसी आदि से, अन्धेरे में कोई मनुष्य है ऐसा जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । एक गूंगा आदमी दूसरों के हाथ की चेष्टाओं को अथवा संकेत से अथवा गूंगे के संकेत आदि से दूसरा जो समझता है वह श्रुतज्ञान है । इसी प्रकार एक बहरे को दूसरे की हाथ की संज्ञाओं से जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । पाँचों इन्द्रियों में स्वस्थ पुरुषों में भी बहुत बार वाणीप्रयोग न करके मुँह, हाथ, मस्तक आदि की संज्ञाओं
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