SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड १८१ एक पुरुष की दो विधवा स्त्रियों के बीच पुत्र के लिये झगडा हुआ । दोनों कहने लगीं, यह मेरा पुत्र है । न्यायाधीश ने आज्ञा दी, पुत्र के दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा दोनो स्त्रियों को बाँट दो । जो नकली माता थी वह तो इस फैसले पर कुछ भी न बोली, परन्तु जो असली माता थी उसका हृदय काँप उठा और प्रेम के आवेश में उसने कहा : ठीक है, यह मेरा पुत्र नहीं है । यह पुत्र उसे दे दो। इस पर से वास्तविक माता का पता चल गया । यह न्यायाधीश की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है। वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण—एक वृद्धा ने दो ज्योतिषियों से पूछा कि देशान्तर से मेरा पुत्र कब आयेगा ? ऐसा पूछते समय वृद्धा के सिर पर रखा हुआ घड़ा नीचे गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गया । इस पर से उन दो ज्योतिषियों में से एक ने कहा : माँजी, तुम्हारा लड़का, जैसे यह घट नष्ट हुआ वैसे मर गया है । तब दूसरे ने उसे रोक कर कहा : माँजी, तुम्हारा पुत्र घर पर आ गया है । तुम घर पर जाओ । वृद्धा घर गई और पुत्र को देखकर आनन्दित हुई । यह ज्योतिषी की वैनयिकी बुद्धि का उदाहरण है । उसने ऐसे विचार से-ऐसी तर्क शक्ति से इस प्रकार का भविष्य कथन किया कि जैसे वृद्धा का घड़ा, प्रश्न पूछते समय ही, अपनी जननी मिट्टी में मिल गया वैसे वृद्धा का पुत्र भी अभी ही उसे मिलना चाहिये । कर्मजा बुद्धि के उदाहरणों में शिल्प एवं कर्म (कला) में प्रवीणतासूचक उदाहण दिए हैं । परिणामिकी बुद्धि के उदाहरणों में से एक उदाहरण इस प्रकार है परस्त्री का त्यागी एक श्रावक एक बार अपनी पत्नी की सखी को देखकर उस पर मोहित हो गया । मोह से पीडित अपने पति को देखकर पत्नी ने कहा : 'तुम दुःखी न हो । तुम्हारी इच्छा मैं पूर्ण कर दूंगी' । इसके बाद रात पड़ने पर अपनी सखी के वस्त्राभरण धारण करके सखीरूप से अपने पति से वह एकान्त में मिली । उसके साथ संग करने के बाद उस पुरुष को अपने व्रतभंग के लिये दुःख हुआ । पत्नी ने जब सच्ची बात कही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy