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जैनदर्शन रस्सी का स्पर्श होना चाहिए, सर्प का नहीं' इस प्रकार की निर्णयाभिमुखी जो विचारणा-सम्भावना होती है वह ईहा' है।
ईहा के बाद 'यह वृक्ष ही है,' 'यह बंगाली ही है, 'यह शंख का ही शब्द है,' 'यह रस्सी का ही स्पर्श है'--इस प्रकार का निर्णय होना 'अवाय' है । और अवाय से निर्णीत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण हो सके ऐसा संस्कार वाला ज्ञान 'धारणा' है । इसे 'संस्कार' भी कहते हैं । अर्थात् 'अवाय' रूप निश्चय कुछ समय के बाद लुप्त हो जाने पर भी ऐसा 'संस्कार' रखता जाता है जिससे आगे जाकर उस निश्चित विषय का स्मरण हो आता है । इस अवायरूप निश्चय की सतत धारा, तज्जन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मरण-यह सब मतिव्यापार 'धारणा' है । परन्तु इस समग्र मतिव्यापार में 'संस्कार' प्रत्यक्ष मतिज्ञान है. जबकि 'स्मरण' परोक्ष मतिज्ञान है ।
इस प्रकार 'अवग्रह' आदि चार ज्ञानों का उत्पत्ति क्रम है ।
शास्त्र में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और परिणामिकी इस प्रकार चार तरह की बुद्धि का वर्णन आता है और उनका मतिज्ञानरूप से उल्लेख किया है । किसी विकट उलझन को सुलझाने के समय उसे सुलझा सके ऐसी सहज बुद्धि यदि तुरन्त उत्पन्न हो तो वह औत्पत्तिकी बुद्धि है । इसे प्रत्युपन्नमति भी कह सकते हैं । विनय अर्थात् शिक्षण द्वारा विकसित बुद्धि वैनयिकी बुद्धि है, शिल्प एवं कर्म द्वारा संस्कृत बुद्धि कर्मजा बुद्धि है और लम्बे अनुभव से परिपक्व हुई बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि है ।
इन चार प्रकारों की बुद्धि का जिक्र 'नन्दिसूत्र' में उदाहरणों के संक्षिप्त नामों के साथ आता है और वे उदाहरण उस सूत्र की टीका में श्री मलयगिरि ने संक्षेप में दिए हैं। इनमें से कुछ बहुत मनोरंजक हैं । यहाँ पर तो विषय का तनिक ख्याल आ सके इस दृष्टि से दो-एक उदाहरण उस टीका में से देते हैं ।
औत्पत्तिकी बुद्धि पर टीकाकार ने आज भी सामान्य जनता में अतिप्रसिद्ध ऐसा एक उदाहरण दिया है । जैसे कि
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