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________________ तृतीय खण्ड १७९ सत्तामात्र स्वरूप का ग्राहक हो और जिसमें कोई भी अंश विशेषण-विशेष्यरूप से भासि न हो । लोक-व्यवहार का सम्पूर्ण आधार 'ज्ञान' पर है । यही कारण है कि ज्ञान का आवारक 'ज्ञानावरणीय' कर्म पूर्वोक्त आठ कर्मों में प्रथम रखा है । ज्ञान के सम्बन्ध में पहले थोड़ा निरूपण किया गया है । उसमें ज्ञान के 'मति' आदि पाँच भेद बतलाए हैं । यहाँ पर हम इनके बारे में तनिक ब्योरे से देखें । मति और श्रुत ज्ञान मन तथा इन्द्रियों द्वारा होते हैं । मत से युक्त चक्षु इन्द्रियों से रूप आदि विषयों का जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह (सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष) मति ज्ञान है और मन से सुखादि का जो संवेदन होता है वह मानस (सांव्यावहारिक) प्रत्यक्ष मतिज्ञान है । इस प्रकार मतिज्ञान का एक विभाग प्रत्यक्ष (सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष) रूप है और मन से तर्कवितर्क-विचार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमानादि जो होता है वह परोक्ष मतिज्ञान है । प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ऐसे चार भेद हैं । प्रथम निर्विकल्परूप अव्यक्त 'दर्शन' के बाद अवग्रह होता है। सामान्यतः रूप, स्पर्श आदि का प्रतिभास अवग्रह है । अवग्रह के पश्चात् वस्तु की विशेषता के बारे में सन्देह उत्पन्न होने पर उसके बारे में निर्णयोन्मुखी जो विशेष आलोचना होती है वह 'ईहा' है । किसी दृश्य आकृति का चक्षु द्वारा, किसी शब्द का श्रवणेन्द्रिय द्वारा, किसी स्पर्श स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा प्रतिभास (अवग्रहरूप प्रतिभास) होने के पश्चात् विशेष चिह्न ज्ञान होने पर 'यह वृक्ष ही होना चाहिए, मनुष्य नहीं' अथवा 'यह मनुष्य बंगाली' होना चाहिए, पंजाबी नहीं अथवा 'यह शंख का शब्द होना चाहिए, शृंग का नहीं, अथवा 'वह १. "अवग्रहेण विषयीकृतो योऽर्थोऽवान्तर मनुष्यत्वादिजातिविशेषलक्षणः, तस्य 'विशेषः' कर्णाटलाटादिभेदः, तस्य आकाङक्षणं 'भवितव्यताप्रत्ययरूपतया ग्रहणाभि मुख्यमीहा ।" -रत्नाकरावतारिका, २-८, "यथा पुरुष इत्यवगृहीते तस्य भाषावयोरूपादिविशेषैराकाङ्क्षणमीहा ।" -तत्त्वार्थराजवार्तिक १-५-१२. २. "अवग्रहगृहीतस्य शब्दादेरर्थस्य शब्दः 'किमयं शाङ्खः शा) वा इति संशये सति 'माधुर्यादयः शाङ्घधर्मा एवोपलभ्यन्ते, न कार्कश्यादयः शाङ्गधर्माः' इत्यन्वयव्यतिरेक-रूपविशेषपर्यालोचनरूपा मतेश्चेष्टा 'ईहा'।"-प्रमाणीमीमांसा, १-१-२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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