________________
तृतीय खण्ड
१८९ कहने का अभिप्राय यह है कि जो मुमुक्षु आत्मा होते हैं वे समभाव के अभ्यासी और आत्मविवेकसम्पन्न होते हैं । इससे वे अपने ज्ञान का उपयोग समभाव की पुष्टि में करते हैं, न कि सांसारिक वासना की पुष्टि में । इस कारण लौकिक दृष्टि से उनका ज्ञान चाहे-जितना अल्प क्यों न हों, फिर भी वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है; क्योंकि वह उन्हें सन्मार्ग पर ले जाता है । इसके विपरीत संसार वासना के रस में लोलुप आत्माओं का ज्ञान चाहे-जितना विशाल और स्पष्ट क्यों न हो; वह समभाव का उद्भावक न होने से और संसारवासना का पोषक होने के कारण ज्ञान न कहा जाकर अज्ञान कहलाता है । क्योंकि उनका वह ज्ञान उन्हें वास्तविक कुशलमार्ग पर ले जाने के बदले दुर्गति के मार्ग पर ले जाता है । संसारवासना के पोषण में उपयुक्त ज्ञान कुशलमार्गी कैसे कहा जा सकता है ? वह तो उन्मार्गी ही कहलायेगा । इससे ऐसा ज्ञान मिथ्या-ज्ञान-अज्ञान कहलाए यह स्पष्ट है ।
वस्तुस्थिति ऐसी है कि प्राप्त किए हुए ज्ञान का सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी । प्राप्त किए हुए ज्ञान के बारे में सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी की दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है । सम्यक्त्वी अपने ज्ञान का सदुपयोग करने की ओर वृत्ति रखेगा । और यदि आवेश अथवा स्वार्थवश उसका दुरुपयोग हो जाय तो उससे उसका अन्तःकरण खटकेगा, खिन्न होगा; जबकि मिथ्यात्वी भौतिक विषयानन्द का उपासक होने के कारण अपने ज्ञान का वह अपने संकुचित स्वार्थ के लिये चाहे किसी प्रकार से उपयोग करेगा । उससे यदि कोई दुष्कृत्य अथवा पापाचरण हो जाय तो उसे उसके लिये कुछ दुःख नहीं होगा, उलटा उसमें वह आनन्द मानेगा । सम्यक्त्वी मनुष्य सत् को सत्
और असत् को असत् समझता है, अतः उससे यदि कोई पापाचरण हो जाय तो उसके लिये उसे दु:ख होता है। वह कल्याणबुद्धि और श्रेयार्थी आत्मा होने से कल्याण के, आत्मोद्धार के मार्ग पर चलता है, जबकि मिथ्यात्वी को पुण्य-पाप का भेद मान्य न होने से ऊपर ऊपर से 'साहुकार' जैसा क्यों न बरतता हो, प्रामाणिक क्यों न दिखता हो, फिर भी उसकी मनोदशा मिथ्यादृष्टि से दूषित होती है । और उसकी ऐसी स्थिति जबतक चालू रहे तबतक उसके निस्तार का कोई मार्ग नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org