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________________ जैनदर्शन इस प्रकार जैन दर्शन ने अध्यात्मदृष्टि को सम्मुख रखकर ही ज्ञान का सम्यग्-असम्यग् रूप से विभाजन किया है । १९० जीव की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाएँ बतलाने के लिये 'भाव' का निरूपण किया जाता है । 'भाव' अर्थात् अवस्था । भाव पाँच प्रकार के हैं : औपशमिक भाव, क्षायिक भाव, क्षायोपशमिक भाव, औदयिक भाव और पारिणामिक भाव । अब इन्हें देखना शुरू करें । आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख पहले हो चुका है : ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन कर्मों का स्वरूप पुनः यहाँ पर याद करके आगे चलें । ज्ञान के बारे में आगे किए गए विवेचन पर से देखा जा सकता है कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल इस प्रकार ज्ञान के पाँच भेद होने से उनके आवारक कर्म भी पाँच प्रकार के होंगे । अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञाना-वरण— इस प्रकार ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद होते हैं । मनुष्यों (प्राणियों ) में बुद्धि का जो कमोवेश विकास देखा जाता है वह इस ज्ञानावरण कर्म के कमोवेश क्षयोपशन (शिथिलीभाव) के कारण है। दर्शन के चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिर्दर्शन और केवलदर्शन ऐसे चार भेद होने से उनके आवारक कर्म भी चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण रूप से चार प्रकार के हैं । निद्रा- पंचक का भी दर्शनावरणीय में समावेश किया गया है । वेदनीय कर्म के सातवेदनीय और असातावेदनीय ऐसे दो भेद बतलाए हैं । मोहनीय कर्म के दो भेद बताए हैंदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । आयुष्य कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और अन्तराय कर्म के स्वरूप का उल्लेख पहले किया जा चुका है । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यशक्ति में विघ्न उपस्थित करनेवाले अन्तराय कर्म के १. निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानद्धि इस प्रकार निद्रा पाँच प्रकार की बतलाई है । निद्रा के गाम्भीर्य की तरतमता को लक्ष में रखकर ये भेद किये गए हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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