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तृतीय खण्ड
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दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ऐसे पाँच भेद किए गए हैं। मनुष्यों में (प्राणियों में) जो कमोबेश कार्यशक्ति देखी जाती है उसका कारण अन्तराय कर्म का न्यूनाधिक क्षयोपशम(शिथिलीभाव) है । दानान्तराय आदि का प्रभाव संसार में देखा जाता है और उनके क्षयोपशम से उपलब्ध दानादि सिद्धियाँ भी देखी जाती हैं।
अब हम आत्मा के उपर्युक्त पाँच भाव देखेंऔपशमिक भाव
मोहनीय कर्म के उपशम से जो अवस्था प्राप्त होती है उसे औपशमिक भाव कहते हैं। मोहनीय के एक भेद दर्शनमोहनीय के उपशम से एक प्रकार का जो सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) प्राप्त होता है और मोहनीय के दूसरे भेद चारित्र मोहनीय के उपशम से एक प्रकार जो चारित्र प्राप्त होता है वे दोनों औपशमिक भाव के कहलाते हैं । उपशम से प्रकट होनेवाले सम्यक्त्व और चारित्र क्रमशः औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र कहलाते हैं । इस प्रकार औपशमिक भाव दो हुए
१. सम्यक्त्व और २. चारित्र । क्षायिक भाव
कर्म के क्षय से होनेवाली अवस्था क्षायिक भाव हैं । क्षायिक भाव में (केवल) ज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान, (केवल) दर्शनावरण के क्षय से उत्पन्न केवलदर्शन, मोहनीय कर्म के एक भेद दर्शनमोहनीय के क्षय से सम्पादित सम्यक्त्व और मोहनीय के दूसरे भेद चारित्रमोहनीय के क्षय से सम्पादित चारित्र तथा अन्तराय कर्म के क्षय से सिद्ध पाँच दान-लाभ-भोगउपभोग-वीर्य लब्धियाँ इस प्रकार कुल नौ लिए जाते हैं। इसमें केवल घाती कर्मों के क्षय से साधित क्षायिक भाव लिए हैं, क्योंकि, यह निरूपण सिर्फ भवस्थदशा को लक्ष में रखकर ही किया गया है । बाकी क्षय तो सम्पूर्ण कर्मों का होता है ।
इस प्रकार क्षायिक भाव नौ हुए
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