________________
तृतीय खण्ड
और १४ - १८ दानादि पाँच लब्धियाँ ।
औदयिक भाव
कर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली स्थिति को औदयिक भाव कहते हैं । समग्र संसारी जीवों की कर्मों के उदय से जो जो स्थिति - अवस्था होती है अथवा जो जो अवस्था वे प्राप्त करते हैं वे सब स्थितियाँ - अवस्थाएँ औदयिक भाव में आती हैं । इस प्रकार जीव का औदयिक भाव अनन्त अवस्थाओं की अपेक्षा से अनन्त प्रकार का हो सकता है, परन्तु यहाँ पर तो प्रमुख भावों का निर्देश करके इक्कीस औदयिक भाव गिनाए गए हैं और वे हैं
१९३
अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, छह लेश्या ( कृष्ण-नील- कापोत- पीत-पद्म- शुक्ल), चार कषाय (क्रोध-मान- माया- -लोभ), चार गति (देव-मनुष्य तिर्यंच - नरक गति), तीन वेद (पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेद) और मिथ्यात्व । उपर्युक्त अवस्थाओं में से कौनसी अवस्था किस किस कर्म के उदय से होती हैं यह भी यहाँ देख लें ।
अज्ञान (मिथ्यादर्शन) मिथ्यात्व के उदय से होता है । बुद्धिमान्द्यरूप अज्ञान ज्ञानावरण के उदय से होता है । असिद्धत्व आठों प्रकार के कर्मों के उदय से होता है । असंयम अर्थात् अविरति अप्रत्याख्यानावरण कर्म के उदय से होती है । 'लेश्या' मनोयोग का परिणाम है, मनोयोग मनः पर्याप्ति के कारण है और मनः पर्याप्ति 'नामकर्म' का एक भेद है, अतः 'लेश्या' का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है । कषाय चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । गति-गतिनाम कर्म के कारण होती है । पुरुषादि वेद-वेदमोहनीय के उदय का परिणाम है । मिथ्यात्व मिथ्यात्वमोहनीय के उदय का प्रभाव है ।
I
इस तालिका के अतिरिक्त दर्शनावरणजन्य निद्रापंचक, वेदनीयकर्म से उत्पन्न सुख-दुःख, मोहनीयजन्य हास्यादि छह, आयुष्यकर्म के चार आयुष्य, नामकर्म की प्रकृति - परम्परा, गोत्रकर्मोदयजन्य उच्च-नीचगोत्र – ये सब औदयिक भाव में समझने, क्योंकि किसी भी कर्म के उदय का परिणाम औदयिक भाव में आता है
।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org