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जैनदर्शन
पूर्व परिणाम का नाश और दूसरे परिणाम का प्रादुर्भाव होता रहता है वह विनाश और उत्पाद है । इस पर से सब पदार्थ उत्पाद, विनाश और स्थिति (ध्रुवत्व) स्वभाव के ठहरते हैं । जिसका उत्पाद, और विनाश होता है उसे जैन शास्त्रों में 'पर्याय कहते हैं और जो मूल वस्तु स्थायी रहती है उसे 'द्रव्य' कहते हैं । द्रव्य की उपेक्षा से (मूल वस्तुतत्त्व से) प्रत्येक पदार्थ नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । इस तरह प्रत्येक वस्तु का एकान्त नित्य नहीं, एकान्त अनित्य नहीं किन्तु नित्यानित्य रूप से अवलोकन अथवा निरूपण करना 'स्याद्वाद' है ।
हेमचन्द्राचार्य अपने 'वीतरागस्तोत्र' के आठवें प्रकाश में कहते हैंआत्मन्येकान्त नित्ये स्यान्न भोग: सुख-दुःखयोः । एकान्तानित्यरूपेऽपि न भोगः सुखदुःखयो ॥२॥
पुण्यपापे बन्धमोक्षौ न नित्यैकान्तदर्शने । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ नाऽनित्यकान्तदर्शने ॥३॥
अर्थात् — आत्मा को एकान्त नित्य ( नित्य नहीं किन्तु एकान्त नित्य ) मानें तो इसका अर्थ यह होगा कि आत्मा में किसी प्रकार का अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता, कोई परिणाम अथवा परिवर्तन नहीं होता; अर्थात् आत्मा सर्वथा कूटस्थनित्य है ऐसा मानना पड़ेगा । और यदि ऐसा मान लिया जाय तो सुख-दुःख आदि की भिन्न भिन्न समयभावी भिन्न भिन्न अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होगी। आत्मा को नित्य मान करके भी यदि परिणामी ( भिन्न-भिन्न परिणामों में परिणमन करनेवाला) माना जाय तभी, निरन्तर उत्पद्यमान और विनशनशील समग्र पर्यायों (परिणामों) में वह स्थायीस्थिर स्थितिशील होने से, उसमें भिन्न भिन्न समय की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ-भिन्न-भिन्न समय के भिन्न भिन्न परिवर्तन घट सकते हैं और भिन्न भिन्न समय में उसके किए हुए सत्कर्म - दुष्कर्म के अच्छे-बुरे फल, चाहे जितने समय के बाद अथवा जन्मों पश्चात् भी उसे मिल सकते हैं ।
१. महात्मा बुद्ध के पैर में एक बार चलते चलते काँटा चुभ गया । उस समय उन्होनें अपने भिक्षुओं से कहा
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