SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम खण्ड ३२३ कूटस्थनित्य मानने पर तो किसी प्रकार का अवस्थान्तर स्थित्यन्तर या भिन्न भिन्न वृत्ति प्रवृत्तियाँ और सुख-दुःख आदि की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ घट ही नहीं सकतीं । चैतन्यस्वरूप आत्मा में ही नहीं, किन्तु प्रत्येक अचेतन जड़ पदार्थ में भी प्रतिक्षण होनेवाले अन्यान्य परिणामों का प्रवाह सतत चालू ही रहता है । वस्तुमात्र परिवर्तनशील है । हर क्षण उसके पर्याय बदला करते हैं । जिस प्रकार आत्मा को एकान्त नित्य मानने में ऊपर की बातें संगत नहीं होती उसी प्रकार आत्मा को एकान्त अनित्य [ सर्वथा - क्षणिक ] मानने में भी वे ही आपत्तियाँ खड़ी होती हैं । वस्तु के सतत निरन्तर परिवर्तमान पर्यायोंविवर्तों-परिणामो परिवर्तनी में अनुस्यूत एक स्थायी द्रव्य मानना न्यायप्राप्त है । आत्मा भिन्न भिन्न अवस्थाओं में भिन्न भिन्न पर्यायों में निरन्तर परिणत होता रहता है, फिर भी उन सब अवस्थाओं में स्वयं आत्मरूप से नित्य अखण्ड रहता है । उदाहरणार्थ, कोई पुस्तक, वस्त्र या छाता मैला हो अथवा उस पर छींटे पड़े अथवा दाग लगे अथवा उसे रंगा जाय तो जिस प्रकार वह पुस्तक, वस्त्र या छाता वह व्यक्ति-मिट नहीं जाता उसी प्रकार आत्मा की अवस्था में —— उसके भावों में परिवर्तन होता है उससे वह आत्मा (वह व्यक्ति) मिट नहीं जाता। जिस प्रकार मनुष्य के अथवा हाथी, घोड़े के शरीर में परिवर्तन होने पर भी वह मनुष्य अथवा हाथी या घोड़ा ( वह व्यक्ति) मिट नहीं जाता परन्तु वह मनुष्य ही अथवा हाथी, घोड़ा ही दुबला-मोटा हुआ है या दूसरे रूप से उसमें परिवर्तन हुआ है ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार आत्मा में भिन्न भिन्न परिणाम होते रहने से आत्मा आत्मरूप से मिट नहीं इत एकनवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ! || ३६१ ॥ - आ० हरिभद्र का शास्त्रवार्त्तासमुच्चय. अर्थात् — हे भिक्षुओ ! इस भव से इक्यानवे भव में मैंने एक पुरुष का शक्ति के द्वारा वध किया था । इसके फलस्वरूप मेरे पैर में काँटा चुभा है । १. कूटस्थ अर्थात् कूट यानी पर्वत के शिखर की भाँति अथवा लोहे के घन की तरह स्थिर | किसी तत्त्व को सर्वथा अपरिणामी और निर्विकार बतलाने के लिये 'कूटस्थ' शब्द का प्रयोग किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy