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जैनदर्शन जाता । ये सब में परिवर्तन, परिणाम अथवा पर्याय आत्मा के ही होने से उन सब में आत्मा आत्मारूप से अखण्ड बना रहता है । सुवर्ण का धुंधला पड़ना अथवा उजला होना-ऐसे सामान्य परिवर्तन की बात तो दूर रही, परन्तु कुण्डल, कण्ठी, कड़ा, करधनी आदि उसके भिन्न-भिन्न रूपान्तर भी उसी(सुवर्ण) के ही हैं । उसके इन सब रूपान्तरों में, उसके इन सब भिन्नभिन्न आकाररूप पर्यायों में वह बराबर अनुस्यूत(अनुगत) रहता है। इसी प्रकार आत्मा के एक ही जन्म की नहीं, अपितु भिन्न भिन्न जन्मों की विविध अवस्थाओं में भी आत्मा व्यक्तिरूप से अखण्ड बना रहता है । और ऐसा होने पर ही उसके एक जन्म में किए हुए सुकृत-दुष्कृत के अच्छे-बुरे फल समय आने पर उसी जन्म में अथवा दूसरे जन्म में अथवा बहुत जन्मों के बाद किसी भी भव में उसे मिल सकते हैं, तभी उसके कृत्यों का उत्तरदायित्व स्थिर रह सकता है और तभी उसका क्रमिक (जन्म-जन्मान्तरों में क्रमशः होनेवाला) विकास संचित हो सकता है तथा उसकी अनेक जन्मों में क्रमशः होनेवाली साधना के बढ़ते जाते उत्कर्ष के संचय के समुच्चितपरिणामस्वरूप किसी जन्म में वह कल्याण की उन्नत भूमि पर आरूढ़ हो सकता है ।
किन्तु आत्मा को सदा स्थायी, एक, नित्य, अखण्ड द्रव्य मानने के बदले केवल क्षणक्षण के पर्याय ही मानें तो ऐसा होगा कि एक क्षण के पर्याय ने जो कार्य किया था उसका फल दूसरे क्षण के पर्याय को ही मिलेगा, अर्थात् जिसने किया था उसे नहीं मिलने का और जिसने नहीं किया था उसे मिलने का ! यह कितनी विसंगति है ! इन दोषों को ‘कृतनाश' और 'अकृतागम' कहा जाता है । (कृतनाश का अर्थ है जिसने जो किया हो उसका फल उसे न मिलना और 'अकृतागम' का अर्थ है जिसने जो किया नहीं है उसका फल उसे मिलना ।)
इस तरह एकान्त क्षणिकवाद में भी सुख-दुःखभोग, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष की उपपत्ति अशक्य बन जाती है ।
मतलब कि चेतन आत्मत्त्व यद्यपि नित्य है फिर भी उसे एकान्त नित्य न मानकर, परिणामी होने से उसे उस रूप से अनित्य भी मानना चाहिए । इसी प्रकार घट जैसे स्पष्ट अनित्य दिखाई देनेवाले अचेतन जड़
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