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पंचम खण्ड
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पदार्थों के मृत्तिका आदि मूल द्रव्य स्थायी हैं इसलिये मूल द्रव्य की अपेक्षा से उन्हें नित्य भी मानना चाहिए । इस तरह नित्यानित्यवाद' युक्तियुक्त है ।
इस बारे में श्री हेमचन्द्राचार्य उपर्युक्त श्लोकों के अनुसंधान में व्यावहारिक दृष्टान्त देते हुए कहते है कि
गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् ।
द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरभेषजे ॥६॥ अर्थात्-गुड कफ करनेवाला है और सोंठ पित्तजनक, परन्तु इन दोनों के योग्य मिश्रण में ये दोष नहीं रहते । (इसी प्रकार एकान्त नित्यवाद अथवा एकान्त अनित्यवाद सदोष हैं, परन्तु नित्यानित्यवाद निर्दोष है ।)
सत् के स्वरूप के बारे में भिन्न भिन्न दर्शनों के भिन्न भिन्न मन्तव्य हैं । वेदान्तदर्शन पूर्ण सत्रूप ब्रह्म को केवल ध्रुव (नित्य) ही मानता है । बौद्धदर्शन सत् पदार्थ को सर्वथा (निरन्वय) क्षणिक (मात्र उत्पाद-विनाशशील) मानता है । सांख्यदर्शन चेतनतत्त्वरूप सत् को केवल ध्रुव(कूटस्थ नित्य) और प्रकृतितत्त्वरूप सत् को परिणामीनित्य (नित्यानित्य) मानता है । नयायिकवैशेषिक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आत्मा आदि कतिपय सत् पदाथों
१. 'जीवा णं भंते ! किं सासया, असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय
असासया । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चई xx ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया ।'
--भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देश २. इस पाठ में भिन्न-भिन्न नय की अपेक्षा से जीव का शाश्वतत्व और अशाश्वतत्व दोनों बतलाया है।
स्यातामत्यन्तनाशेऽस्य कृतनाशाऽकृतागमौ । न त्ववस्थान्तरप्राप्तौ लोके बालयुवादिवत् ॥२३॥ तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः ।
पुरुषोऽभ्युपगन्तव्यः कुण्डलादिषु सर्पवेत् ॥२८॥ इत्यादि श्लोक महान् मीमांसक कुमारिल भट्ट के श्लोकवार्तिक (आत्म०) में हैं और वे आत्मा का नित्यानित्यरूप से प्रतिपादन करते हैं ।
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