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________________ ३२६ जैनदर्शन को कूटस्थनित्य और घट, पट आदि सत् पदार्थों को मात्र अनित्य (मात्र उत्पाद-विनाशशील) मानते हैं । परन्तु जैनदर्शन का मन्तव्य ऐसा है कि चेतन या जड़, मूर्त या अमूर्त, स्थूल या सूक्ष्म सब सत् कहे जानेवाले पदार्थ उत्पाद, नाश और ध्रौव्य इस प्रकार त्रयात्मक हैं । ऊपर हम कह चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु में एक अंश ऐसा है जो सदा शाश्वत रहता है और दूसरा अंश अशाश्वत । शाश्वत अंश की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक (स्थिर) है और अशाश्वत अंश की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्ययात्मक (अस्थिर) कहलाता है। इन दो अंशों में से किसी एक अंश में से किसी एक ही अंश की ओर दृष्टि जाने से वस्तु केवल अस्थिररूप अथवा स्थिररूप प्रतीत होती है, परन्तु दोनों अंशें की ओर दृष्टि डालने से वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है । अतः इन दोनों दृष्टियों के अनुसार ही जैनदर्शन सत्-वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस प्रकार त्र्यात्मक बतलाता है—एक (अस्थिरगोचर) दृष्टि के हिसाब से उत्पाद-नाशरूप और दूसरी (स्थिरगोचर) दृष्टि के हिसाब से ध्रौव्यरूप । यदि सब पदार्थ केवल क्षणिक ही हों तो प्रत्येक क्षण में नया-नया पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने से तथा उनका कोई स्थायी (अनुस्यूत) आधार न होने से उस क्षणिक परिणामपरम्परा में सजातीयता का अनुभव कभी भी शक्य नहीं होगा । अर्थात् पहले कभी देखी हुई वस्तु को पुनः देखने पर 'यह वही वस्तु है' ऐसा जो प्रत्यभिज्ञान होता है वह किसी भी तरह शक्य नहीं होगा, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के लिये उसकी विषयभूत वस्तु और द्रष्टा दोनों का स्थिरत्व आवश्यक है । एकान्त क्षणिकवाद में स्मृति ही नहीं बन सकती, क्योंकि जिस क्षणपर्याय ने अनुभव किया वह तो निरन्वय नष्ट हो गया । अतः उसके द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण दूसरा क्षणपर्याय किस तरह कर सकता है ? अनुभव करनेवाला एक और स्मरण करनेवाला दूसरा ऐसा नहीं हो सकता । स्मृति और प्रत्यभिज्ञान अशक्य बनने से जगत् के परस्पर के लेन-देन के व्यवहारों की ही नहीं, जीवन के समग्र व्यवहारों की उपपत्ति दुर्घट हो जायगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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