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________________ पंचम खण्ड ३४१ बाकी तो वस्तु में जितने धर्म हैं उतने तो शब्द भी नहीं है, और वे सब धर्म हमें ज्ञात भी नहीं होतें । परमज्ञानी' भी उनके ज्ञान में आनेवाले सब धर्म भाषा के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते । इसीलिये वस्तु कथंचित् अवक्तव्य ही रहती है । इसके बारे में तनिक विशेष देखें वस्तु में अपने आप में रहनेवाले धर्म वे 'अस्ति' धर्म और परवस्तुओं में के धर्मों का अभाव वे 'नास्ति धर्म । इस प्रकार अस्ति-धर्म और नास्तिधर्म प्रत्येक वस्तु में हैं । इन दोनों प्रकारों के धर्म अनन्त हैं । इसीलिये प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक कही जाती है । हम जब वस्तु का वर्णन करने बैठते हैं तब उस वस्तु के कुछ अस्ति धर्मों का उल्लेख करके उसका वर्णन कर सकते हैं ।-[प्रथम भंग] । अथवा तो उस वस्तु के कुछ नास्ति धर्मों का कथन करके कर सकते हैं -[दूसरा भंग] । अथवा उस वस्तु के कुछ अस्ति धर्मों और कुछ नास्ति धर्मों का कथन करके कर सकते हैं-[तीसरा भंग] । परन्तु चाहे जिस तरीके से वर्णन क्यों न करें, वह वर्णन आंशिक ही होने का, सम्पूर्ण नहीं। क्योंकि अस्ति धर्म और नास्ति धर्म अनन्त होने १. पन्नवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पन्नवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअनिबद्धो ॥ ___ -बृहत्कल्पसूत्र, गा. ९६३. अर्थात् - कहे जा सके ऐसे पदार्थ, कहे न जा सके ऐसे पदार्थों के अनन्तवें भाग जितने हैं, और उन कहे जा सके ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग श्रुतनिबद्ध है । मतलब यह है कि वक्तव्य और अवक्तव्य दोनों प्रकार के पदार्थ अनन्त हैं। अलबत्ता, वक्तव्यों की अपेक्षा अवक्तव्य अनन्तगुण अधिक हैं । वक्तव्य बातें भी सब नहीं कही जा सकतीं । मान लीजिए कि सौ बातें बताने जैसी (बताई जा सके ऐसी) हैं, मगर उनमें से बहुत ही अल्प शास्त्र में निबद्ध की जा सकती हैं। बाकी की अकथयितव्य कोटि में ही पड़ी रहती हैं । तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञ स्वयं भी जितना जानते हैं, समझते हैं उतना सब भाषा में कहने के लिए समर्थ नहीं हो सकते । और जितना वे कहते हैं उतना सब कोई भी जिज्ञासु श्रोता अपने मन में बराबर अवधारण नहीं कर सकता; और श्रोता ने अपने मन में जितना अवधारण किया होता है उतना सब दूसरे को न समझा सकता है, न कह सकता है और न बराबर शब्दों में उतार ही सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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