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जैनदर्शन से उनमें से जिन धर्मों का वर्णन अशक्य है वे तो वाणी के द्वारा कहे ही नहीं जा सकते । अत: वे अवक्तव्य ही रहने के । इस तरह वस्तु अंशत: अवक्तव्य भी कही जा सकती है-[चतुर्थ भंग] । सारांश यह कि वस्तु का वर्णन यदि उसके केवल अस्ति धर्मों को लेकर किया जाय तो भी थोडे ही अस्ति-धर्मों का कथन हो सकेगा और अवशिष्ट सभी धर्म अवक्तव्य ही रहेंगे--[पंचम भंग] सारांश यह कि वस्तु का वर्णन यदि उसके केवल अस्ति धर्मों को लेक किया जाय तो भी थोड़े ही अस्ति-धर्मों का कथन हो सकेगा
और अवशिष्ट सभी धर्म अवक्तव्य ही रहेंगे-[पंचम भंग] । वस्तु का वर्णन यदि उसके नास्ति-धर्मों को लेकर किया जाय तो भी वह अमुक ही नास्तिधर्मों का हो सकेगा, बाकी के सब नास्ति धर्म अवक्तव्य ही रहने के षष्ट भंग] । यदि वस्तु के अस्ति धर्म और नास्ति धर्म दोनों प्रकार के धर्मों को लेकर वस्तु का वर्णन किया जाय तो भी उसके कुछ ही अस्ति-धर्म और नास्ति-धर्म कहे जा सकेंगे, बाकी के सभी अस्ति धर्म और नास्ति-धर्म अवक्तव्य ही रहेंगे--[सप्तम भंग] । इस प्रकार चाहे जिस तरीके से वस्तु का वर्णन क्यों न किया जाय, फिर भी वह कभी भी सम्पूर्ण नहीं हो सकेगा, सदा अपूर्ण ही रहने का ।
वस्तु स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का दिखने से उपनिषदों ने वस्तु को अनिर्वचनीय कह दिया है । अनिर्वचनीय कहो या अवक्तव्य एक ही बात है । ऋग्वेद का
'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।' [१. १६४. ४६]
यह सूत्र कहता है कि एक ही सत् का विद्वान् कई तरह से वर्णन करते हैं ।
इस वैदिक वाक्य में मानवस्वभाव की उस विशेषता का हमें दर्शन मिलता है जो समन्वयशीलता कही जाती है । यही समन्वयशीलता जैनदर्शनसम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है ।
वस्तु के जो धर्म हमें अज्ञात हैं उन्हें तो भाषा में उतारने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । वे तो अवक्तव्य ही रहने के । परन्तु कुछ
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