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जैनदर्शन
सकता और न केवल 'नास्ति' ही कर सकता है । असंयुक्त उत्तर दूसरी ही बात है । यद्यपि एक और दो मिलकर तीन होते हैं, फिर भी तीन की संख्या एक और दो से भिन्न मानी गई है ।
चतुर्थ भंग — वस्तु अवक्तव्य है ।
यह तो सहज ही समझ में आ सके ऐसा है कि वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता की दृष्टि से तो वस्तु अवक्तव्य ही है । परन्तु सप्तभंगी — सातों भंग वस्तु के एक-एक धर्म को लेकर चलनेवाले भंग हैं । अतः 'अवक्तव्य' भंग वस्तु के अस्तित्वादि एक-एक धर्म को लेकर घटाने का है । सत्-असत् (अस्तिनास्ति ) ऐसे विरोधी धर्मयुगलों की विचारणा करने पर वस्तु सदसद् उभयात्मक है, नित्य - अनित्य उभयात्मक है - ऐसा जब कह सकते हैं, इस प्रकार जब वस्तु वक्तव्य हो सकती है तब वह अवक्तव्य कैसे कही जा सकती है ?
अस्तित्व - नास्तित्व आदि विरोधी धर्मयुगल एक साथ — युगपत् वचन द्वारा नहीं कहे जा सकते, इस कारण से वस्तु अवक्तव्य बतलाई जाय, परन्तु दो धर्मों की तो बात ही क्या ? एक अस्तित्व शब्द भी एक साथ नहीं बोला जा सकता । वह भी 'अ', 'स्', 'त्', 'इ' इस प्रकार क्रम से ही वर्णोच्चार द्वारा बोला जाता है । तो इससे 'अस्तित्व' अथवा 'नास्तित्व' भी क्या अवक्तव्य बन जाय ? और इस तरह एक धर्म भी यदि अवक्तव्य बन जाय तो वस्तु सर्वथा अवक्तव्य ही बनी रहे ।
जिस तरह वस्तु का केवल अस्तित्व धर्म बतलाया जा सकता है उसी तरह अस्तित्व - नास्तित्व, दोनों धर्म भी यदि बतलाए जा सकते हों तो फिर वस्तु 'अवक्तव्य' कैसे हो सकती है ?
वस्तु का अपना 'सत्त्व' इतना अधिक गहरा है, इतना अधिक बृहत्महत् है तथा उसका 'असत्त्व' भी अन्य समग्र द्रव्यों से व्यावृत्तत्वरूप होने के कारण अतिगम्भीर, बृहत् महत् है कि उसका यथावत् निरूपण अशक्य है । इसी प्रकार नित्यत्व - अनित्यत्व आदि के बारे में भी समझा जा सकता है । वस्तु का 'अवक्तव्य' प्रकार इस तरह विचारा जा सकता है ।
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