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________________ पंचम खण्ड ३३९ वस्तु नास्ति (अभावात्मक) ही है, परन्तु कथंचित् अर्थात् अमुक अपेक्षा से, अर्थात् पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव से । हम पहले बतला चुके हैं कि वस्तु में यदि स्व-द्रव्यादि की अपेक्षा से अस्तित्व मानने में न आए तो वस्तु निःस्वरूप हो जायगी । इसी तरह यदि पर-द्रव्यादि की अपेक्षा से नास्तित्व मानने में न आए तो वस्तुसांकर्य हो जायगा; क्योंकि घट में पटरूप से यदि नास्तित्व न हो तो घट और पट एक ही हो जायँ-एक वस्तु सर्वात्मक बन जाय । ऊपर ऊपर से देखने पर ऐसा मालूम हो सकता है कि स्व-सत्त्व ही पर-असत्त्व है, परन्तु ऐसा नहीं है । ये दोनों भिन्न भिन्न हैं । जिस तरह स्व-रूपेण सत्त्व की अनुभूति होती है उसी तरह पर रूपेण असत्व भी स्वतन्त्ररूप से अनुभूत होता है । इन दोनों भंगो से भिन्न भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है । इन दोनों भंगों से भिन्न भिन्न प्रकार का ज्ञान होता है। इन दो भंगो में से एक भंग का प्रयोग करने पर दूसरे 'भंग से पैदा होनेवाला ज्ञान नहीं होता। जैसे कि 'अमुक मनुष्य बाज़ार में नहीं है' ऐसा कहने पर यह मालूम नहीं हो सकता कि वह मनुष्य अमुक स्थान पर है। बाजार में न होने पर भी वह कहाँ है इस बात की जिज्ञासा तो बनी ही रहती है। इसीलिये 'अस्ति' भंग की आवश्यकता है । व्यवहार में 'अस्ति भंग का प्रयोग करने पर भी 'नास्ति' भंग के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती ही है । 'मेरे हाथ में रूपया है' ऐसा कहना एक बातं है और 'मेरे हाथ में अशरफी नहीं है' ऐसा कहना दूसरी बात है। इस तरह दोनों भंगों का प्रयोग आवश्यक है । तृतीय भंग-तीसरे भंग से वस्तु 'क्या' है और क्या नहीं है' यह क्रमशः बतलाया जाता है । अर्थात् वस्तु में अस्ति एवं नास्ति दोनों साक्षेप धर्मों का क्रमशः कथन करना तीसरा भंग है। उपर्युक्त (अस्ति और नास्ति) दो भंग मिलकर तीसरा भंग होता है, फिर भी इसका कार्य उपर्युक्त दोनों भंगों से जुदा है । जो काम इस अस्तिनास्ति उभयात्मक तीसरे भंग से होता है वह न तो केवल 'अस्ति' ही कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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