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जैनदर्शन
इस पर से देखा जा सकता है कि हेतु किस-किस प्रकार के हो सकते हैं और यह भी देखा जा सकता है कि हेतु साध्य की उपस्थिति के समय उपस्थित होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । उगी हुई कृत्तिका उगनेवाली रोहिणी का तथा उग चुकी भरणी का अनुमान करा सकती है । अतः कहने का अभिप्राय यह है कि हेतु और साध्य चाहे एकसमयवर्ती हों या भिन्नसमयवर्ती हों तथा एकस्थान वर्ती हों या भिन्नस्थानवर्ती हों, सिर्फ उनका विशिष्ट सम्बन्ध ही अपेक्षित है और यह सम्बन्ध निश्चित एवं व्यवस्थित होना चाहिए । हेतु होने के लिये समसमयवर्ती अथवा समस्थानवर्ती होने का नियम नहीं है । एकमात्र अविनाभाव का तत्त्व ही उसमें अपेक्षित है । उदित, कृत्तिका उगनेवाली रोहिणी का अथवा उग चुकी भरणी का अनुमापक बनती है वह उन दोनों के परस्पर के नियत सम्बन्ध के कारण ही - क्रमभाविता के नियत सम्बन्ध के कारण ही और यह सम्बन्ध अविनाभावरूप है ।
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यह तो स्पष्ट है कि हेतु जिसका विरोधी हो उसके अभाव का वह अनुमान कराए । किसी मनुष्य के विशिष्ट प्रकार के मुखविकार पर से उसमें क्रोधोपशम न होने का अनुमान हो सकता है । यहाँ पर मुखविकाररूप हेतु क्रोधोपशमन का विरोधी होने से अथवा क्रोधोपशम के विरोधी ऐसे क्रोध का परिणाम होने से क्रोधोपशमन के अभाव का अनुमापक होता है । किसी मनुष्य में आरोग्य के अनुरूप चेष्टा दिखाई न देने से उनके शरीर में किसी व्याधि के अस्तित्व का ही अनुमान होता है । आरोग्य के अनुरूप चेष्टा जहाँ दिखाई न दे वहाँ आरोग्य के अभाव का अर्थात् व्याधि के अस्तित्त्व का ही अनुमान हो सकता है । नमूने के तौर पर इतना लिखना यहाँ पर बस होगा ।
दूसरे के समझाए बिना ही अपनी बुद्धि से हेतु द्वारा जो अनुमान किया जाता है उसे 'स्वार्थानुमान कहते हैं । दूसरे को समझाने के लिये अनुमानप्रयोग किया जाता है । जैसे कि, यहाँ अग्नि है । क्योंकि धूम दिखाई देता है । जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि नियमेन होती है, जैसे कि सरसोईघर में । यहाँ पर भी धूम दिखाई दे रहा है । अतः यहाँ पर अग्नि अवश्य है । इस प्रकार दूसरे को समझाने के लिये जो वाक्यप्रयोग किया
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