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________________ ३९० जैनदर्शन में आता है । कर्म के उपशमन, उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण हो सकते हैं । आत्मबल के उत्कर्ष से कर्म को विपाकोदय से भुगते बिना ही नष्ट किया जा सकता है । कर्म द्वारा उपलब्ध शरीर, इन्द्रिय आदि का यदि योग्य रूप से विकास न किया जाय तो वे अविकसित एवं अशक्त रह जाएँगे । अतः कर्म द्वारा प्राप्त वस्तुओं के विकास का लाभ उद्यम पर अवलम्बित है । जो उत्तम शिक्षण प्राप्त करके अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, हृदय का योग्य विकास साधते है वे अपने इस प्रकार के प्रशस्त उद्यम एवं प्रयत्न से अपने १. कर्म की उपशमना यदि देश -उपशमना ( आंशिक उपशमना ) हो तो संक्रमण तथा उद्वर्तन - अपवर्तन क्रियाएँ (ऐसे उपशान्त कर्म पर) हो सकती हैं, किन्तु कर्म के निबिडीकरणरूप 'निधत्ति' एवं 'निकाचित' क्रिया की प्रवृत्ति वहाँ शक्य नहीं है । परन्तु जब उदय - उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन-अपवर्तन तथा निधत्ति-निकाचित रूप किसी भी क्रिया से प्रभावित न हो सके ऐसी भी कर्म की पूर्ण उपशमना (सर्व-उपशमना) होती है तब भी ऐसी 'उपशान्त' अवस्था अधिक समय तक नहीं टिकती । थोड़े ही समय में उपशान्त कर्म पुनः उदय में आता है जिससे वह उपशान्त आत्मा जैसे ऊपर चढ़ी थी वैसे ही नीचे गिरने लगती है । अन्ततः कर्म का क्षय ही पूर्ण श्रेयः साधक होता है । अकामनिर्जरा से कर्म के विपाक का उपभोग होने पर जो क्षय होता है उससे कर्म के क्षय के साथ ही साथ अन्यान्य कर्मों का बन्ध भी होता है । अतः इस प्रकार का क्षय (निर्जरा) दूर तक नहीं ले जा सकता; किन्तु पवित्र चारित्र तप के साधन से कर्मों को बलपूर्वक उदय में लाकर उनके विपाक - फल का अनुभव किये बिना ही उनको झटक दिया जाता है, इस तरह उनकी जो निर्जरा ( सकामनिर्जरा) की जाती है वही कैवल्यसाधक बनती है । आत्मसाधना का बल जितना उन्नत होता है उतने विशाल परिणाम में कर्मों की निर्जरा (क्षय) होती है । इस तरह कर्मों का झड़ना विपाकोदय से भी होता है और साधनप्रयत्न से भी होता है । साधन प्रयत्न से होनेवाली निर्जरा में केवल नीरस कर्मदलिकों का वेदन होता । इसे 'प्रदेशोदय' कहते हैं । 'संक्रमण' नाम की क्रिया पहले बतलाई है । उस क्रिया द्वारा उदय में न आये हुए कर्मों को उदय में आई हुई कर्म - प्रकृतियों के साथ संक्रमण करके, उनमें मिश्रित करके उदय में आई हुई कर्म - प्रकृतियों के फलविपाकरूप से उनका भोग किया जाता है । मुक्तिगामी आत्मा अपने आयुष्य के अन्तिम क्षण में इस तरह संक्रमण से भी कर्मों का वेदन करके तथा उन्हें झटक कर विदेह - मुक्ति प्राप्त करते हैं । इस तरह, कर्म - विदारण में संक्रमण - विधि भी एक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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