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________________ पंचम खण्ड ३८९ आदि द्वारा परिवर्तन की शक्यता प्रत्यक्ष देखी जा सकती है । फिर भी सामान्यतः काल की थोड़ी बहुत मर्यादा तो प्रत्येक कार्य की सिद्धि में अवश्य रहती है । अत: काल स्वतन्त्र नहीं किन्तु उद्यम, स्वभाव आदि का अवलम्बन लेकर जहाँ तक वह कार्य साधक (कार्यसाधन में उपयोगी) होता है वहाँ तक उसकी महत्ता मानना न्याय है । काल की सहकारिता यदि ध्यान में ली जाय तो कार्य के आरम्भ से लेकर जबतक वह पूर्ण न हो तो तब तक मनुष्य धैर्य रखना सीखता है । यदि ऐसा न हो तो कार्य का प्रारम्भ करके तुरन्त ही अथवा आवश्यक समय से पूर्व-असमय में फल की इच्छा रखने से और फल की प्राप्ति दिखाई न देने पर मनुष्य निराश हो जाय और कार्यसाधन के उद्यम में ढीला पड़ जाय तो वह फल से वञ्चित ही रह जाय । काल की सहकारिता बराबर ध्यान में आ जाय तो मनुष्य ऐसा समझने लगता है कि समय पकने पर फल मिलेगा अर्थात् कालानुक्रम से कार्य सिद्ध होगा । इसका परिणाम यह आता है कि मनुष्य कार्य में उद्यमशील रहता है । जिस प्रकार काल की मर्यादा उल्लंघनीय है उस प्रकार स्वभाव की मर्यादा उल्लंघनीय नहीं है, फिर भी व्यवहार दृष्टि से स्वभाव का भी अतिक्रमण देखा जाता है । (व्यवहार में जिसे मनुष्य का स्वभाव कहते हैं वह वस्तुतः स्वभाव नहीं, परन्तु विभाव है, और इसीलिये उसमें परिवर्तन की शक्यता होती है ।) क्रोधी मनुष्य का क्रोधी स्वभाव शान्तात्मा सन्त के सत्संग से कम हो जा सकता है और सत्संग द्वारा प्राप्त उत्तम भावनाओं के सुंदृढ संस्कारबल से वह नष्ट भी हो जाता है । सत्संग के प्रभाव से दुर्जनप्रकृति भी सज्जन-प्रकृति में परिवर्तित हो जाती है | संसर्ग के अनुसार अच्छे खराब और खराब अच्छे हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त भिन्न-भिन्न वस्तुओं का मिश्रण करने से उन वस्तुओं के मूल स्वभाव में परिवर्तन हो जाता है और दूसरा ही स्वभाव उत्पन्न होता है । जैसे कि, पित्तस्वभाववाली सोंठ और कफस्वभाववाले गुड का मिश्रण करने पर उसमें कफ और पित्त के स्वभाव का दोष नहीं रहता । कर्म में-पूर्वोपार्जित कर्म में परिवर्तन होता है और हो सकता है । उसके स्थिति एवं रस में भी परिवर्तन शक्य है । कोई कर्म जल्दी भी उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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