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जैनदर्शन
सकते । यदि कालवादी काल को ही प्राधान्य देकर दूसरों का यथायोग्य मूल्याङ्कन न करे तो उसकी यह भ्रान्ति है। इसी प्रकार स्वभाववादी, कर्मवादी, उद्यमवादी के बारे में भी समझ लेना चाहिए । पाँचो ही कारणों को यथोचित गौण-मुख्य भाव से मानने में ही सम्यगदृष्टि रही हुई है। इसके विपरीत, केवल एकान्तवाद की ओर जाना मिथ्यादृष्टि है।
इन पाँचों कारणों के सहयोग के दृष्टान्त भी हमारे सम्मुख विद्यमान हैं । स्त्री से बालक उत्पन्न होने में ये पाँचों ही कारण देखे जाते हैं । यह तो स्पष्ट ही है कि काल (गर्भकाल) पूर्ण हुए बिना बालक उत्पन्न ही नहीं हो सकता । प्रसवस्वभाववाली स्त्री से ही बालक उत्पन्न होता है, अतः यहाँ पर स्वभाव भी कारणरूप से उपस्थित है । उद्यम तो वहाँ होता ही है । पूर्व कर्म की अथवा नियति की अनुकूलता होने पर ही यह वस्तु शक्य है । इस प्रकार प्रसूति में इन पाँचों ही कारणों का समवाय देखा जाता है । विद्याभ्यास में आगे बढ़कर उच्च श्रेणी का अभ्यास पूर्ण करने में भी इस कारण-सामग्री का सन्निध्य देखा जाता है । वहाँ काल की मर्यादा है, विकासगामी उद्यम है, शिक्षणयोग्य स्वभाव भी है और कर्म को अथवा नियति की अनुकूलता भी है। इन पाँचो कारणों की सर्वत्र प्रधानता हो ऐसा नहीं समझना चाहिए, परन्तु गौणरूप से अथवा मुख्यरूप से किसी भी कार्य की उत्पत्ति में--ये पाँच कारण अवश्य विद्यमान होते हैं ।
काल की मर्यादा उद्यम आदि से बदली जा सकती है । अन्न, फलादि के पकने में अमुक समय की मर्यादा खास निश्चित नहीं है । वृक्ष के फल पकने का समय भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न भिन्न होता है । दूसरे देशों में यंत्र के द्वारा खेती की उपज भारत की अपेक्षा जल्दी तैयार की जाती है। हाथ से बनाई जानेवाली वस्तु में अधिक समय लगता है, जबकि यंत्र द्वारा वही वस्तु थोड़े ही समय में तैयार की जा सकती है । पहले के जमाने में जब रेलगाड़ी नहीं थी तब अहमदाबाद से काशी पहुँचने में महीनों के महीने लग जाते थे; जबकि इस समय रेलगाड़ी से तीसरे दिन वहाँ पहुँचा जा सकता है, और वायुयान से तो सुदूर प्रदेश में भी कितनी जल्दी पहुँचा जा सकता है यह किसी से अज्ञात नहीं है। इस तरह काल की मर्यादा में भी उद्यम
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