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प्रथम खण्ड
ऊर्ध्वगति कहाँ तक होती रहेगी ? कहाँ जाकर वह ठहरेगी ?-यह विशेष रूप से विचारणीय प्रश्न हैं । इस प्रश्न का निर्णय 'धर्म' एवं 'अधर्म' पदार्थ द्वारा लोक एवं अलोक का विभाग माने बिना किसी प्रकार से हो नहीं सकता । इस लोक-अलोक के विभाग को यदि मान्य रखें तो प्रश्न सुलझ सकता है, क्योंकि उस समय ऐसी स्पष्टता की जा सकता है कि गति करने में सहायक 'धर्म' पदार्थ ऊपर जहाँ तक है वहीं तक-लोक के उस अग्रभाग तक कर्मरहित आत्मा पहँच कर वहाँ ठहर जाती है। वहाँ उसकी गति रूक जाती है और वहीं पर टिक जाती है—स्थिर हो जाती है । वहाँ से आगे अलोक में 'धर्म' पदार्थ का अभाव होने के कारण गति नहीं हो सकती । यदि 'धर्म-अधर्म पदार्थ और उनसे निष्पन्न लोक-अलोक का विभाग न हो तो कर्मरहित मुक्त आत्मा ऊपर जा कर कहाँ रुकेगी ? और कहाँ पर वह टिकेगी ?—यह समस्या सुलझ नहीं सकती ।
पुद्गल :
परमाणु से लेकर स्थूल-अतिस्थूल-महास्थूल सभी रूपी पदार्थ 'पुद्गल' कहे जाते हैं । 'पूर' और 'गलू' इन दोनों धातुओं के संयोग से 'पुद्गल' शब्द बना है । 'पू' का अर्थ संश्लेष-मिलन और 'गलू' का अर्थ झड जाना—अलग होना होता है । यह बात हमारे अपने शरीर में तथा दूसरी प्रत्येक वस्तु में प्रत्यक्ष अनुभूत होती है । अर्थात् अणुसंघात रूप छोटेबड़े प्रत्येक पदार्थ में परमाणुओं का बढ़ना-घटना हुआ करता है। परमाणुओं का संश्लेषण-विश्लेषण प्रत्येक मूर्त वस्तु में हुआ करता है । एक परमाणु भी दूसरे के साथ संयुक्त अथवा उससे वियुक्त हुआ करता हैं । इस प्रकार परमाणु में भी 'पुद्गल' संज्ञा अर्थयुक्त सिद्ध हो सकती है ।
पुद्गल का मूल तत्त्व परमाणु है । परमाणु के पारस्परिक संश्लेष से बननेवाला पदार्थ स्कन्ध कहा जाता है ।
स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण---इन चारों से युक्त होना पुद्गल का स्वरूप है । यही इसका मूर्तत्व है । मूर्तत्व अर्थात् वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श-इन सबका सामुदायिक परिणमन । मूर्त को रूपी भी कहते हैं, परन्तु
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