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________________ जैनदर्शन इस रूपी (मूर्त के पर्याय शब्द 'रूपी') का अर्थ केवल वर्णयुक्त नहीं, किन्तु वर्णादिसमुदायरूप होता है । इस पर से इतना तो सहज ही समझा जा सकता है कि पुद्गल के अतिरिक्त दूसरे तमाम द्रव्यों को जो अरूपी कहा गया है उसका यह अर्थ नहीं है कि उनका कोई स्वरूप ही नहीं है । यदि उनका कोई स्वरूप ही न हो तो वे खरविषाण की भाँति असत् ही सिद्ध होंगे । अवश्य उनका प्रत्येक का निश्चित स्वरूप है ही; किन्तु उनमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श गुणों का अभाव होने के कारण (इस अभाव के अर्थ में) वे अरूपी कहे गए हैं । स्पर्श आठ प्रकार का है-कठिन और मृदु, गुरु तथा लघु, शीत और उष्ण, स्निग्ध (चिकना) व रूक्ष (लूखा) । रस पाँच प्रकार का है-कडुआ, तीखा, कषाय (कसैला), खट्टा और मीठ । गन्ध दो प्रकार की है-सुगन्ध और दुर्गन्ध । वर्ण के पाँच भेद हैं-काला, पीला, हरा, लाल और सफेद । इस प्रकार स्पर्श आदि के कुल बीस भेद होते हैं । परन्तु तरतमभाव की अपेक्षा से उनमें से प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं । वह इस तरह जो जो वस्तु मृदु होती है उन सबके मृदुत्व में कुछ-न-कुछ तारतम्य तो होता ही है । इस वजह से सामान्यतः मृदुत्व एक होने पर भी तारतम्य १. स्वादुरम्लोऽथ लवणः कटुकस्तिक्त एव च । कषायश्चेति षट्कोऽयं रसानां संग्रहः स्मृतः ॥ ___ -चरकसंहिता अ० १, श्लो० ६५. चरकसंहिता के उपर्युक्त श्लोक में मीठा, खट्टा, नमकीन, कडुआ, तीखा और कसैला इस तरह छह प्रकार के रस बतलाए गए हैं । लोकव्यवहार में भी षड्रस प्रसिद्ध हैं । तो फिर प्रश्न होता है कि शास्त्र में रस के पाँच ही भेद क्यों गिनाए हैं ? उनमें एक अधिक लवणरस का निर्देश क्यों नहीं किया गया ? इसके उत्तर में तत्त्वार्थसूत्र पर की सिद्धसेन गणि की वृत्ति (पंचम अध्याय के २३वें सूत्र की वृत्ति) में तथा हरिभद्राचार्य के 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ पर की गुणरत्नसूरि की वृत्ति (श्लोक ४९ की वृत्ति) में लिखा है कि "लवणो मधुरान्तर्गत इत्येके । संसर्गज इत्यपरे ।" अर्थात् लवण रस का मधुर रस में कोई अन्तर्भाव करते हैं तो कोई उसे संसर्गजन्य कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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