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प्रथम खण्ड
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के अनुसार उसके संख्यात, असंख्यात और अनन्त तक भेद हो सकते हैं । इसी प्रकार कठिन आदि अन्य स्पर्श तथा रसादि पर्यायों के बारे में समझना । शब्द प्रकाश, धूप, छाया व अन्धकार भी पुद्गल ही हैं ।
काल
:
काल को सभी जानते हैं । नई वस्तु पुरानी होती है, पुरानी जीर्ण होती है और जीर्ण नष्ट हो जाती है । बालक युवा होता है, युवा वृद्ध होता है और वृद्ध मृत्यु प्राप्त करता है । भविष्य में होनेवाली वस्तु किसी समय वर्तमान में आती है और वर्तमानकालीन वस्तु भूतकाल के प्रवाह में प्रवाहित हो जाती है । यह सब काल की वजह से हैं। नए नए रूपान्तर, भिन्नभिन्न वर्तन-परिवर्तन, विभिन्न परिणाम काल पर अवलम्बित हैं ।
प्रदेश :
उपर्युक्त धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल ये चार अजीव पदार्थ तथा आत्मा अनेक प्रदेशवाले हैं । प्रदेश का अर्थ है परम सूक्ष्म ( सबसे अन्तिम - अविभाज्य) अंश घट, पट आदि पुद्गल पदार्थों के अंतिम अविभाज्य सूक्ष्म अंश परमाणु हैं यह तो हर कोई समझते हैं । ये परमाणु जब तक संयुक्त होते हैं - अवयवी के साथ सम्बद्ध होते हैं तब तक उनका 'प्रदेश' के नाम से व्यवहार होता है और अवयवी से अलग हो जाने पर वे ही 'परमाणु' नाम से व्यवहृत होते हैं । परन्तु धर्म, अधर्म, आकाश और आत्मा के प्रदेश तो विलक्षण प्रकार के हैं । वे प्रदेश परस्पर अत्यन्त घनरूप - - पूर्ण एकतावाही हैं । जिस प्रकार घड़े के प्रदेश - सूक्ष्म अंश घड़े से अलग हो सकते हैं उस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और आत्मा के प्रदेश एक-दूसरे से अलग हो ही नहीं सकते । वे एक - द्रव्यात्मक, अखण्ड, ऐक्यरूप तत्त्व हैं ।
अस्तिकाय :
आत्मा, धर्म और अधर्म इन तीन के असंख्यात' प्रदेश हैं । आकाश
१. जिसकी संख्या की गिनती ही न हो सके वह असंख्यात - ऐसा सामान्य अर्थ समझने के अतिरिक्त जैनशास्त्रों में उल्लिखित विशेष अर्थ भी जानना चाहिए ।
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