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जैनदर्शन
अनन्तप्रदेशवाला है । लोकसम्बन्धी आकाश असंख्यातप्रदेशवाला और अलोकसम्बन्धी आकाश अनन्तप्रदेशवाला है । पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेश होते हैं । इस प्रकार प्रदेशसमूहात्मक होने के कारण ये पाँच 'अस्तिकाय' कहलाते हैं । ' अस्तिकाय' शब्द का अर्थ 'अस्ति' अर्थात् प्रदेश और 'काय' अर्थात् समूह, अर्थात् प्रदेशसमूहात्मक होता है । धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के साथ अस्तिकाय शब्द लगाकर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय — इस प्रकार से भी इन द्रव्यों का नामनिर्देश होता है ।
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धर्म, अधर्म एवं आकाश एक-एक व्यक्तिरूप हैं । जीव अनन्त हैं । जितने जीव उतने वे पृथक् व्यक्तिरूप हैं । पुद्गल द्रव्य अनेक व्यक्तिरूप है । पुद्गल परमाणु अनन्त हैं ।
काल को अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बीता हुआ समय नष्ट हो गया हैं और भविष्य का समय इस समय असत् है, जबकि चालु समय अर्थात् वर्तमान क्षण ही सद्भूत काल है । मुहूर्त, दिवस, रात्रि, महीना, वर्ष आदि रूप से काल के जो विभाग किए गए हैं वे सब विभाग असद्भूत क्षणों को बुद्धि में एकत्रित करके किए गए हैं । अतः काल क्षणमात्र का होने से उसके साथ प्रदेशसमूहसूचक 'अस्तिकाय' शब्द संगत नहीं हो सकता । उपर्युक्त पाँच अस्तिकाय और काल ये जैनदर्शनसम्मत षड् (छह) द्रव्य हैं ।
पुण्य-पाप :
यदि तत्त्वतः सब जीव समान हैं तो फिर उनमें परस्पर इतनी विषमता क्यों ? कालभेद से भी एक ही जीव में दिखाई देनेवाली विषमता का क्या कारण है ? इस प्रश्न के उत्तर में से ही कर्मविद्या प्रगट होती है । तीनों काल की जीवनयात्रा की पारस्परिक संगति कर्मवाद पर ही अवलम्बित है । यही पुनर्जन्मवाद का आधार है । आत्मवादी सभी परम्पराओं ने पुनर्जन्म के कारणरूप में कर्मतत्त्व को मान्य रखा है ।
शुभ कर्म 'पुण्य' और अशुभ कर्म 'पाप' कहलाता है । आरोग्य,
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