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प्रथम खण्ड
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सम्पत्ति, रूप, कीर्ति, सुकुटुम्ब - परिवार, दीर्घ आयुष्य आदि सुख के साधन जिन कर्मों के कारण उपलब्ध होते हैं वे शुभ कर्म 'पुण्य' कहलाते हैं और इनसे विपरीत अर्थात् दुःख की सामग्री के कारणभूत अशुभ कर्म 'पाप' कहलाते हैं ।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय —— इन आठ कर्मों का उल्लेख आगे आयेगा । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय ये चार कर्म अशुभ होने के कारण पापकर्म हैं, क्योंकि ज्ञानावरण ज्ञानशक्ति को दबाता हैं, दर्शनावरण दर्शनशक्ति का अवरोधक है, मोहनीय कर्म मोह उत्पन्न करता है अर्थात् यह कर्म तत्त्वश्रद्धान तथा संयम में बाधक होता है, और अन्तराय कर्म इष्टसाधन में विघ्न उपस्थित करता है । इन चार कर्मों के अतिरिक्त शुभ तथा अशुभ इन दो प्रकार के नाम कर्म की अशुभ - प्रकृतियाँ, आयुष्य कर्म में से नारक आयुष्य, गोत्रकर्म की नीचगोत्र प्रकृति और वेदनीयकर्म का असातावेदनीय भेद इतने - कर्मों के -- भेद अशुभ होने के कारण पापकर्म हैं । वेदनीय कर्म का सातावेदनीय भेद, नाम कर्म की शुभ प्रकृतियाँ, उच्च गोत्र और देव आयु, मनुष्य आयु तथा तिर्यंच आयु — इतने कर्म पुण्य कर्म हैं ।
आस्रव :
जिन कारणों से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध होता है वे कारण 'आस्रव' कहलाते हैं । जिन व्यापारों से — जिन प्रवृत्तियों से कर्म के 1
पुद्गल
१. यह तो सब जानते ही हैं कि कर्म की पुण्य प्रकृतियों को पुण्य कहा जाता है, परन्तु विशेष ज्ञातव्य तो यह है कि कर्म की निर्जरा अथवा कर्म के लाघव (दुर्बल अथवा पतला होना) को भी पुण्य कहा गया है । श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के १०७ वें श्लोक की वृत्ति में लिखते हैं कि
" निर्जरा सैव रूपं यस्य तस्मात् 'पुण्याद्' इति पुण्यं न प्रकृतिरूपं किन्तु कर्मलाघवरूपं, तस्मात् । "
इसके बाद के १०८वें श्लोक की वृत्ति में भी वे इसी प्रकार लिखते हैं कि"पुण्यतः - कर्मलाघवलक्षणात्, शुभकर्मोदयलक्षणाच्च ।" इन दोनों उल्लेखों का अर्थ ऊपर आ गया है ।
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