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जैनदर्शन
आकृष्ट हों-आत्मा की ओर आकृष्ट हों वे व्यापार — वे प्रवृत्तियाँ 'आस्रव' कहलाती हैं । जिस अध्यवसाय से कर्मप्रवाह (कार्मिक पुद्गलप्रवाह) आत्मा में प्रविष्ट हो वह अध्यवसाय 'आस्रव' कहलाता है। ऐसा कार्य जिससे आत्मा कर्मों से बद्ध हो वह 'आस्रव' है । मन, वचन और शरीर के व्यापार यदि शुभ हों तो शुभ कर्म और अशुभ हों तो अशुभ कर्म का बन्ध होता है । अतएव मन, वचन एवं शरीर के व्यापार आस्रव हैं । मन के व्यापार दुष्ट चिन्तन अथवा शुभ चिन्तन, वचन के व्यापार दुष्ट भाषण अथवा शुभ भाषण और शरीर के व्यापार हिंसा, असत्य, चोरी आदि दुराचरण अथवा जीवदया, ईश्वरपूजन, दान आदि सदाचरण हैं ।
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पुण्यकर्म एवं पापकर्म के बंधने में मुख्य कारण मनोव्यापार हैं, जबकि वचनव्यापार और शारीरिक प्रवृत्ति तो मनोयोग के सहकारी अथवा पोषक रूप से कर्मबन्ध के हेतु होते हैं ।
संवर :
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मनोयोग, वचनोयोग तथा शरीरयोग रूपी आस्रव से आकृष्ट हो कर बंधनवाले कर्मों को रोकनेवाला आत्मा का निर्मल भाव — परिणाम 'संवर' कहलाता है । 'संवर' शब्द 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'वृ' धातु से बना है । 'सम्' पूर्वक 'वृ' धातु का अर्थ रोकना, ठहराना होता है । कर्म बँधता रुक जाय वह 'संवर' है । जिस उज्ज्वल आत्मपरिणाम से कर्म बँधता रुक जाय वह उज्ज्वल परिणाम 'संवर' है । इस प्रकार 'रुकना' और 'जिससे रुके' ये दोनों संवर कहलाते हैं । 'स्रव्' धातु का अर्थ बहना, टपकना होता हैं । अतः 'आस्रव' का अर्थ कर्मपुद्गलों का आत्मा में बहना अथवा बहने के द्वार ऐसा होता है । कर्मपुद्गलों के इस बहाव की रुकावट को 'संवर' कहते हैं । जैसे-जैसे आत्मदशा उन्नत होती जाती है वैसे-वैसे कर्मबन्ध कम होते जाते हैं । आस्रव का निरोध जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे गुण-स्थान की भूमिका भी उन्नत और उन्नततर होती जाती है ।
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बन्ध :
कर्म का आत्मा के साथ दूध और पानी की भाँति सम्बन्ध होने का
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