________________
द्वितीय खण्ड
७७
यह अविरति का संवर; अप्रमत्त (सातवाँ) गुणस्थान होते ही प्रमाद रुक जाता है, यह प्रमाद का संवर; उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह दशा आने पर कषाय रुक जाते हैं, यह कषायों का संवर; और अन्त में मृत्यु के समय अयोगी दशा में योग का निरोध होता है यह योग का संवर है ।।
मोह का सम्पूर्ण विलय होते ही कर्म का बन्ध सर्वथा रुक जाता है अर्थात् 'संवर' पूर्णतया सिद्ध होता है । (एकमात्र सातावेदनीय कर्म का क्षणिक बन्ध किस गिनती में ?) जीवन्मुक्त (सयोगकेवली) की यह दशा है । इस प्रकार मोक्ष अथवा सिद्धत्व, पूर्ण संवर और देह-मुक्त होते समय पूरी होने वाली निर्जरा इन दोनों के बल से प्राप्त होता है ।
सर्वकर्मक्षयात्मक मोक्ष की प्राप्ति से पूर्व अंशतः कर्मक्षयरूप निर्जरा का बढ़ता जाना आवश्यक है । यद्यपि सब संसारी आत्माओं में कर्मनिर्जरा का क्रम चालु ही रहता है, परन्तु आत्म-कल्याणरूप कर्म निर्जरा तो जब जीव मोक्षाभिमुख होता है तभी होती है । वास्तविक मोक्षाभिमुखता का प्रारम्भ सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से होता है और वह मोक्ष-साधन-विकास बढ़ता बढ़ता 'जिन' अवस्था पर परिपूर्ण होता है । सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति से लेकर 'जिन' अवस्था तक की अन्तर्विकास की गति के स्थूलरूप से दस विभाग किए गए हैं । इनमें उत्तरोत्तर परिणाम की विशुद्धि बढ़ती जाती है । परिणाम की विशुद्धि जितनी अधिक उतनी ही कर्मनिर्जरा अधिक, अर्थात् पूर्व-पूर्व अवस्था की अपेक्षा ही उत्तर-उत्तर अवस्था में परिणाम की विशुद्धि की अधिकता के कारण असंख्यातगुनी कर्मनिर्जरा बढ़ती जाती है । इस प्रकार बढ़ते बढ़ते अन्त में जिन (सर्वज्ञ) अवस्था में निर्जरा का प्रमाण सबसे अधिक हो जाता है । वे दश अवस्थाएँ इस प्रकार हैं ।
(१) मिथ्यात्व के हटने से सम्यक्त्व प्रकट होता है वह सम्यग्दृष्टि, (२) जिसमें देशविरति प्रकट हो वह उपासक, (३) जिसमें सर्वविरति प्रकट हो वह विरत, (४) जिसमें अनन्तानुबन्धी कषायों का विलय करने जितनी विशुद्धि प्रकट हो वह अनन्तवियोजक, (५) जिसमें दर्शनमोह का क्षय करने की विशुद्धि प्रकट हो वह दर्शन-मोह-क्षपक, (६) जिस अवस्था में चारित्रमोह की प्रकृतियों का उपशम प्रवर्तमान हो वह उपशमक, (७) जिस अवस्था में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org