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जैनदर्शन
स्त्रीवेद, तथा नपुंसकवेद । इस प्रकार चारित्रमोहनीय के इन (१६ + ९) पचीस भेदों के साथ दर्शनमोहनीय के पूर्वोक्त तीन भेद मिलाने पर कुल अट्ठाईस भेद मोहनीय कर्म के हुए। इनमें से तीन प्रकार के दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धी कषाय इन सात के उपशम से 'उपशम- सम्यक्त्व' अथवा क्षय से 'क्षायिक सम्यक्त्व' जिसने प्राप्त किया है वह आठवें, नवें इन दो गुणस्थानों में मोहनीय, की अवशिष्ट इक्कीस प्रकृतियों में से एक लोभ को छोड़कर शेष बीस प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता है : और दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ रह जाने के कारण वह साधक यदि उपशम- श्रेणीवाला हो तो उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोभांश का उपशम कर के ग्यारहवें उपशान्तमोह नामक गुणस्थान पर पहुँचता है, जबकि क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ साधक उस सूक्ष्मीभूत लोभांश का क्षय करता है । इस सूक्ष्मीभूत लोभांश का क्षय होते ही सम्पूर्ण मोह का नाश पूर्ण होता है । यह बारहवें गुणस्थान की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई सिद्धि है और यह सिद्धि तत्काल ही केवलज्ञान की सिद्धि प्रकट करती है ।
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पहले कहे हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँच कर्म-बन्ध के हेतुओं में से जब आगे आगे का बन्धहेतु हो तब उसके पीछे के सब बन्धहेतु अवश्य होने के, परन्तु पीछे का बन्ध हेतु होने पर आगे का हो भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता । जैसे कि जहाँ मिथ्यात्व हो वहाँ अविरति आदि सब बन्धहेतु होने के ही, परन्तु जहाँ अविरति हो वहाँ मिथ्यात्व होना ही चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । वह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । पहले गुणस्थान में अविरति और मिथ्यात्व दोनों ही है परन्तु दूसरे तीसरे चौथे गुणस्थान में अविरति तो है किन्तु मिध्यात्व नहीं है । इसी प्रकार जहाँ कषाय होता है वहाँ योग तो होता ही है, परन्तु सदेह केवली के योग (शरीरादि की क्रिया) निष्कषाय होते हैं ।
ये सब बन्धहेतु साधक की साधना का जैसे-जैसे विकास होता जाता है वैसे-वैसे क्रमशः हटते जाते हैं। जैसे कि चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय रुक जाता है अर्थात् यह मिथ्यात्व का संवर हुआ इसी प्रकार विरति का गुणस्थान प्राप्त होते ही अविरति रुक जाती है,
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