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द्वितीय खण्ड
७५ सम्यक्त्व तो मिथ्यात्वमोहनीय के उदयगत (प्रदेशोदयगत) पुद्गलों का क्षय और उदय में नहीं आए हुए पुद्गलों का उपशम इस तरह क्षय और उपशम दोनोवाला होता है ओर इसीलिये वह 'क्षयोपशम-सम्यक्त्व' कहलाता है । इसके अतिरिक्त वह सम्यक्त्व-मोहनीय के पुद्गलों का विपाकोदय-रूप भी है । इस प्रकार, पुद्गलाश्रयी क्षयोपशम-सम्यक्त्व की अपेक्षा शुद्धआत्मपरिणामस्वरूप उपशमसम्यक्त्व श्रेष्ठतर है इसकी अपेक्षा भी श्रेष्ठतर (सर्वश्रेष्ठ) 'क्षायिकसम्यक्त्व' है; क्योंकि यह मिथ्यात्व-मोहनीय, मिश्रमोहनीय
और सम्यक्त्वमोहनीय इस तरह त्रिविध दर्शनमोहनीय तथा अनन्तानुबन्धी चार कषाय इन सात के क्षय से प्राप्त होता है । क्षयसाध्य होने से वह 'क्षायिक' कहलाता है । इस प्रकार सम्यक्त्व मुख्यतया तीन प्रकार का ।
अब चारित्र-मोहनीय के भेद देखें । वे पचीस हैं और इस प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार आत्मा को कष्ट देनेवाले होने से 'कषाय' कहलाते हैं । इनमें से प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन ऐसे चार-चार भेद हैं । अनन्तदुःखरूप मिध्यात्व के उद्भावक अतितीव्र कषाय 'अनन्तानुबन्धी' कहलाते हैं । अ-- प्रत्याख्यान-अल्पप्रत्याख्यान अर्थात् देशविरति के अवरोधक कषाय 'अप्रत्याख्यानावरण' हैं । प्रत्याख्यान' अर्थात् सर्वविरति को रोकनेवाले कषाय 'प्रत्याख्यानावरण' हैं और वीतराग (यथाख्यात) चारित्र के बाधक कषाय "संज्वलन' कहलाते हैं । इस पर से यह समझा जा सकता है कि 'अनन्तानुबन्धी' कषाय के दूर होने पर चतुर्थगुणस्थानकरूप सम्यक्त्व, दूसरे 'अप्रत्याख्यानावरण' कषाय के हटने पर देशविरति, तीसरे 'प्रत्याख्यानावरण' के नष्ट होने पर सर्वविरति और चौथे 'संज्वलन' कषाय के निरस्त होने पर वीतराग (यथाख्यात) चारित्र प्राप्तक होता है।
इस प्रकार कषाय के सोलह भेद हुए । इनके सहचारी दूसरे नौ गिनाए गए हैं। इन्हें 'नोकषाय' कहते हैं । वे है---हास्य, रति (अनुराग, प्रीति), अरति (अप्रीति, उद्वेग), भय, शोक, जुगुप्सा (धृणा) और पुरुषवेद,
१. यहाँ पर 'अ' का अर्थ अल्प है ।
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