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________________ जैनदर्शन बनते हैं उतने पुद्गलों के पुंज को सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं । और इसके ( मिथ्यात्व मोहनीय के) पुद्गलों का जो भाग शुद्धाशुद्ध अर्थात् मिश्र अवस्था में रहता है वह पुंज मिश्र - मोहनीय' कहलता है और जो भाग वैसे का वैसा अशुद्ध रहता है वह पुंज 'मिथ्यात्वमोहनीय' कहलाता है । इस प्रकार दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय तथा मिथ्यात्वमोहनीयर इस तरह तीन भेद (तीन भाग) होते हैं । उपशमसम्यक्त्व का काल पूर्ण होने पर इन तीन भागों या तीन पुंजो में से जिसका उदय होता है उसके अनुसार आत्मा की परिस्थिति हो जाती है । अर्थात् सम्यक्त्वमोहनीय पुंज का उदय होने पर आत्मा 'क्षयोपशम-सम्यक्त्व' का धारक बनता है, क्योंकि इन निर्मल पुद्गलों का उदय निर्मल काँच की भाँति तत्त्व की सम्यक् प्रतीति में बाधक नहीं होता । और यदि मिश्रमोहनीय पुद्गलपुंज का उदय हो तो जीव की तत्त्व श्रद्धा मिश्र अथवा दोलायमान जैसी बन जाती है; और मिथ्यात्वमोहनीय पुद्गल-पुंज का उदय होने पर जीव पुनः मिथ्यात्व से अवरुद्ध हो जाता है | ७४ दर्शनमोहनीय के इन तीन पुंजों तथा अनन्तानुबन्धी चार कषायों के उपशम से प्रकट होनेवाला 'उपशमसम्यक्त्व उपशम श्रेणी की अवस्था में प्राप्त होता है । उपशम- सम्यक्त्व और क्षयोपशम- सम्यक्त्व में फर्क यह है कि उपशम- सम्यक्त्व में मिथ्यात्व के अथवा दर्शनमोहनीय के किसी भी पुद्गल का विपाकोदय अथवा प्रदेशोदय- कोई उदय नहीं होता, जबकि क्षयोपशम दर्शनं मोहयतीति दर्शनमोहनीयम् - इस प्रकार व्युत्पादित 'दर्शनमोहनीय' शब्द में 'मोहनीय' शब्द का आकुल व्याकुल करनेवाला अर्थात् रोकनेवाला ऐसा अर्थ होता है; अर्थात् दर्शन को रोकनेवाला वह 'दर्शनमोहनीय' । परन्तु उसके अवान्तर भेदरूप सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय तथा मिथ्यात्वमोहनीय का अर्थ क्रमशः सम्यक्त्व को रोकनेवाला, मिश्र को रोकनेवाला और मिथ्यात्व को रोकनेवाला ऐसा नहीं करने का, परन्तु सम्यक्त्वमेव मोहनीयं सम्यक्त्वमोहनीयम् मिश्रमेव मोहनीयं मिश्रमोहनीयम्, मिथ्यात्वमेव मोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयम् अर्थात् सम्यक्त्वरूप मोहनीय, मिश्ररूप मोहनीय तथा मिथ्यात्वरूप मोहनीय — इस प्रकार करने का है । २- ३. फलप्रद उदय वह विपाकोदय और जिस उदय से आत्मा पर असर न हो वह प्रदेशोदय । १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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