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________________ जैनदर्शन वह उपशम पूर्ण हो वह उपशान्त, (८) जिस अवस्था में चारित्रमोह की प्रकृतियों का क्षय हो रहा हो वह क्षपक, (९) जिस अवस्था में वह क्षय पूर्ण सिद्ध हो वह क्षीणमोह, और (१०) जिसमें जिनत्व (सर्वज्ञत्व) प्रकट हो वह जिन । ७८ जिन - केवली परमात्मा आयुष्यक के अन्त के समय [मरण के समय] अपने शरीरादि के सब व्यापारों का निरोध करते हैं, उस निरोध की पूर्ण अवस्था का गुण स्थान है— (१४) अयोगिकेवली । अयोगी का अर्थ है देहादि के सब व्यापारों से रहित — सब प्रकार की क्रियाओं से विरत । केवली अयोगी होते ही उसका शरीर छूट जाता है और वह परम - आत्मा अमूर्त, अरूपी, केवलज्योति: स्वरूप ऐसा परम कैवल्यधाम प्राप्त करता है । इस प्रसंग में अध्यात्मदृष्टि के बारे में भी थोडा विचार कर लें । अध्यात्म : संसार की गति गहन है । विश्व में सुखी जीवों की अपेक्षा दुःखी जीवों का क्षेत्र बहुत विशाल है । आधि-व्याधि - उपाधि तथा शोक - सन्ताप से समस्त जगत् सन्तप्त है । सुख के अनेकानेक साधन उपस्थित होने पर भी मोह एवं सन्ताप की पीडा मिट नहीं सकती । धन आदि मिलने पर भी दुःख का संयोग दूर नहीं हो सकता । वस्तुतः दुःख के मूल काम-क्रोध-लोभअभिमान - ईर्ष्या-द्वेष आदि मानसिक विकार —— दोषों में रहे है । मोहवासना की दुनिया ही दुःखित संसार है । I सुख - दुःख का सम्पूर्ण आधार मनोवृत्ति पर है । बड़ा भारी धनाढ्य पुरुष भी लोभ के चक्र में फँसने से अथवा स्वभाव के कार्पण्य-दोष के कारण दुःखी रहा करता है, जबकि निर्धन मनुष्य विवेकबुद्धि से सम्पादित सन्तोष - वृत्ति के प्रभाव से मन में उद्धेग नहीं रखता, जिससे वह सुखी रहता है । सुख - दुःख की भावना के प्रवाह मनोवृत्ति के विचित्र चक्रभ्रमण के अनुसार बदलते रहते हैं । मन की इस विचित्र चंचल स्थिति में ही दुःख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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