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द्वितीय खण्ड के मूल रहे हुए है । निःसन्देह, शरीरयात्रा' के लिये अन्न, जल तो चाहिए ही; जीवनयात्रा के अथवा सुख-शान्ति के लिये इस तरह बाह्य पदार्थ अवश्य अपेक्षित हैं, तथापि इनकी (इन पदार्थों अथवा साधनों की) कमी में भी तात्त्विक (सच्ची) समझ और तज्जन्य सन्तोष-लक्ष्मी जिसने प्राप्त की है वह सत्त्वशाली मनुष्य अपने चित्त अथवा आत्मा को स्वस्थ रख सकता है और अपने अन्तर्विकास को मन्द नहीं होने देता ।।
सामान्यतः इस जीवन में और इस दुनिया में ही सुखी हुआ जा सकता है, सुखी रहा जा सकता है-यदि हम हमारे पास जो कुछ हो उसी से सन्तुष्ट रहें और आवश्यक पदार्थ न्यायमार्ग से प्राप्त करें अथवा प्राप्त करने का श्रम करें तथा भौतिक-विलास की आकांक्षा न रखकर मानसिक सुख की सँभाल रखने का दृष्टिबिन्दु धारण करें । सारांश यह है कि, आत्मा का अथवा निर्दोष जीवन की प्रसन्नता का सुख ही सच्चा सुख है, फिर वह मनुष्य
१. छद्मस्थमुनि ऋषभदेव का चिन्तन
प्रदीपा इव तैलेन पादपा इव वारिणा । आहारेणेव वर्तन्ते शरीराणि शरीरिणाम् ॥२३९॥ अद्यापि यदि वाऽऽहारमतिक्रान्तदिनेष्विव । न गृह्णाम्यभिग्रहाय किन्तूत्तिष्ठे पुनर्यदि ॥२४१॥ अमी सहस्राश्चत्वार इवाऽभोजनपीडिताः । तदा भङ्गं ग्रहीष्यन्ति भाविनो मुनयोऽपरे ॥२४२ ॥ स्वामी मनसिकृत्यैवं भिक्षार्थं चलितस्ततः ॥
---हेम-त्रिषष्टि. पर्व १, सर्ग ३. अर्थात्-तेल से दीपक और पानी से वृक्ष की भाँति शरीरधारियों के शरीर आहार से हि टिकते हैं। आज वर्षादिन पर्यन्त भोजन के बिना जिस तरह चलाया उसी तरह अब भी यदि मैं आहार ग्रहण न करूँ और अभिग्रहनिष्ठ बना रहूँ तो उन चार हजार मुनियों की जो दशा हुई, अर्थात् भूख से पीड़ित होकर जिस प्रकार वे व्रतभग्न हुए उसी प्रकार भविष्य के मुनि भी भोजन न मिलने से भूख से पीड़ित होकर व्रतभग्न होंगे । ऐसा विचार करके ऋषभदेव भिक्षा के लिये चल पड़े ।
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