________________
द्वितीय खण्ड
८९
प्रकार शारीरिक अहंकार और आसक्ति को कम करने के लिये इस भावना का उपयोग करना चाहिए । परन्तु इसका अर्थ यही नहीं है कि अशुचिभावना के नाम स्वच्छता के बारे में भी लापरवाही रखी जाय ।
शरीर अशुचि है, फिर भी उसके बारे में लापरवाही नहीं रखनी चाहिए । उसकी सुयोग्य सँभाल रखकर (इस सँभाल में समुचित संयम भी विशेषरूप से आ जाता है) अच्छे शुभ कार्यों में उसका उपयोग करने का है । केवल दुष्कृत्य में उसे न लगाकर सत्कृत्य में ही उसे प्रवृत्त रखना चाहिए । इस तरह उसका सदुपयोग सुख-कारक तथा कल्याणकारक बनता है क्रमशः मोक्ष-साधन के विशिष्ट मार्ग पर चढ़ाता है तथा उस प्रवास को गतिशील बनाने में सहायक होता है। इसीलिये कहा गया है कि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् शरीर धर्म का प्रथम साधन है ।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शरीर एक ऐसा कारखाना है जो खाएपिए हुए द्रव्यों में से असारभूत तत्त्वों को बाहर निकालकर सारभूत तत्त्वों का संग्रह करता है । इस प्रकार अशुचि तत्त्वों का दूर करके योग्य तत्त्वों का संग्राहक होने से कौन कह सकता है कि वह जीवन साधना में उपयोगी साधन नहीं है ? कल्याण-भावना को भूलकर जब मनुष्य शरीर को केवल विषय-भोगों का साधन बनाता है तभी वह वस्तुतः अशुचि है । ऐसी अशुचिता न रखनी चाहिए । यही अशुचि-भावना का ध्यान में रखने योग्य मुद्दा है अर्थात् आत्मतत्त्व की उपेक्षा करके शरीर पर जो मोहासक्ति रखी जाती है उसे दूर करना ही अशुचि-भावना का उद्देश है । मनुष्य समुचित संयम रखकर सत्कर्मशील और परोपकार-परायण बने तो उसका शरीर 'नापाक' न समझा जाकर आत्मकल्याण के शुचिपथ पर ले जानेवाला बनता है। और इसी कारण से वह इतना अधिक शुचि समझा जाता है कि उसके अंगभूत पैर को कल्याणाभिलाषी लोग भक्तिभाव से छू कर वन्दन करते हैं, उस चरणस्पर्श को पावित्र्य का स्पर्श मानते हैं ।
(७) आस्रव-भावना-दुःख अथवा कर्मबन्ध के कारणों पर अथवा वैषयिक भोगों पर के राग में से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों पर विचार करना आस्रव-भावना है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org