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जैनदर्शन चुकाने का समय आए तब हम कहते फिरें कि 'मैं किसी का नहीं हूँ, मेरा कोई नहीं है, संसार तो झूठा है ।' यह तो एक प्रकार की धूर्तविद्या ही है । एकत्व की भावना ऐसी स्वार्थान्धता के लिये नहीं है, किन्तु स्वावलम्बी और योग्य बनने के लिये है और असहाय दशा में दुखार्त न होकर 'प्रत्येक प्राणी अकेला है'-ऐसा समझ करके आत्मबल को जगा कर समाधान पैदा करने के लिये है, धैर्य धारण करने के लिये है । दूसरी तरह से देखें तो एकत्व का अर्थ है एकता-ऐक्य अर्थात् मानव-समाज का पारस्परिक मैत्रीपूत संगठन । इसके महत्त्वपूर्ण बल से जगत् में सुख-शान्ति की सिद्धि के साथ ही आध्यात्मिक कुशल भी सिद्ध किया जा सकता है । इस तरह की भावना वह एकत्व-भावना ।
(५) अन्यत्व-भावना-मैं शरीर से भिन्न हूँ, ऐसी अन्यत्व-भावना के बल से शारीरिक सुख-दुःख हमें क्षुब्ध नहीं कर सकते । प्रायः शारीरिक सुख-दुःख के विचार में मनुष्य की सब शक्ति नष्ट हो जाती है । 'मैं कौन हूँ' यह यदि समझ में आ जाय तो इस पवित्र ज्ञान के आलोक में मनुष्य आत्मा से भिन्न ऐसे शरीर के मोह में न पड़े, पड़ता हो तो रुक जाय और पड़ना ही बन्द कर दे । वह इन्द्रियों का दास होगा नहीं और इस प्रकार वैषयिक मोहाक्रमण से उत्पन्न होनेवाले दुःखों से बच जाय । 'मैं', के सम्यक् अनुभव के विकास में जैसे जैसे वह प्रगति करता जाता है वैसे वैसे सच्चे सुख की उसकी अनुभूति बढ़ती जाती है । सुख भौतिक साधनों पर ही अवलम्बित नहीं है, उसके उद्गम का सच्चा स्थान तो आत्मा है, मन है । अतः उसका निर्मलीकरण जितना अधिक होता है उतना ही स्वास्थ्य एवं सुख-शान्ति उच्च श्रेणी के प्रकट होते हैं ।
(६) अशुचि-भावना-शरीर की अशुचिता का विचार करना अशुचि-भावना है। इससे दो लाभ है : एक तो यह कि इससे कुल एवं जातिपांति का मद तथा छुआछूत का ढोंग दूर होता है । अशुचिभावना यह बताती है कि शरीर जैसे अशुचि पदार्थ में शुचिता-अशुचिता की कल्पना करना ही मुर्खता है। शरीर में तो सबके अशुचि ही है। दूसरा लाभ यह है कि शरीर को अशुचि समझने से शारीरिक भोगों पर की आसक्ति कम होती है। इस
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