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द्वितीय खण्ड
अर्थात् — तप ऐसा करना चाहिए जिसमें दुर्ध्यान न हो, मन-वचनकाय का बल नष्ट न हो और इन्द्रियों में क्षीणता न आए ।
इस बारे में नीचे का श्लोक स्पष्ट मार्गदर्शन कराता है
कायो न केवलमयं परितापनीयो मिष्ट रसैर्बहुविधैर्न च लालनीयः । चित्तेन्द्रियाणि न चरन्ति यथोत्पथेन वश्यानि येन च तदाचरितं जिनानाम् ॥
अर्थात् — यह शरीर केवल तपाने के लिये भी नहीं है तथा नानाविध मिष्ट रसों से लालन-पालन करने योग्य भी नहीं है, किन्तु मन और इन्द्रियाँ उत्पथगामी न हों और वश में रहे इस प्रकार से बरतने का है ।
यह जिनभक्त श्लोककार वस्तुतः दोनों अन्तों के मार्ग लेने को कहता है ।
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भगवद्गीता जीवन के व्यापक धोरण का निर्देश करती हुई कहती
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तास्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६- १७॥
बीच का (मध्यम)
अर्थात् -- जिसका आहार-विहार, जिसका उद्योग या श्रमकार्य और जिसका सोना- जगना नियमित और सप्रमाण है उसे दुःखविनाशक योग प्राप्त होता है ।
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सारांश यह कि रोगनिवारण के लिये, अभ्यास के लिये जिससे भविष्य में अवसर आने पर सेवा का अथवा कष्ट सहन का कार्य किया जा सके अथवा अपने पर जिसका सद्भाव हो उसने यदि कोई दुश्चरित किया हो तो उसके निवारण के लिये, परहित (सेवाकार्य ) के लिये, विद्याभ्यास, पठन-पाठन, वाचन-लेखन या चिन्तन के लिये अवकाश मिले इसलिये अथवा आत्मशुद्धि के कार्य के लिये बाह्य तप कर्तव्य है ।
वासनाओं को क्षीण करने में उपयोगी जरूरी आध्यात्मिक बल प्राप्त
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