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________________ १३२ जैनदर्शन करने के लिये शरीर, इन्द्रिय और मन को जिस-जिस आँच से पकाया जाता है वह सब तप है । और यह बात अच्छी तरह से कही जा चुकी है कि बाह्य-तप का महत्त्व आभ्यन्तर तप की पुष्टि के लिये उपयोगी होने में ही माना गया है, अर्थात् बाह्य-तप आभ्यन्तर तप के पास पहुँचने में सहायक होना चाहिए ऐसा शास्त्रकारों का उपदेश है । बाह्य एवं आभ्यन्तर तप के इस वर्गीकरण में समग्र स्थूल तथा सूक्ष्म धार्मिक नियमों का समावेश हो जाता है । बाह्य-तप : बाह्य-तप के छह भेद हैं : १. अनशन, २. ऊनोदरी, ३. वृत्तिसंक्षेप, ४. रस-त्याग, ५. कायक्लेश और ६. विविक्तशय्यासनसंलीनता । १. अशन का त्याग अर्थात् उपवास अनशन है । २. क्षुधा की अपेक्षा कम आहार लेना अवमौदर्य अथवा ऊनोदरिता है। ३. विविध वस्तुओं की ओर रहनेवाली लालच को कम करना वृत्तिसंक्षेप है । ४. घी, दूध, मक्खन, शहद आदि का तथा शराब आदि हानिकारक रसों का त्याग रसत्याग है । रसत्याग के पीछे रसस्वाद रस-लोलुपता पर विजय प्राप्त करने का उद्देश है। रसलुब्ध न हुआ जाय, रस के आस्वाद में आहार की मात्रा अव्यवस्थित न होने पाए तथा रस के बिना भी चलाने का अभ्यास हो सके ऐसा आशय रसत्याग के पीछे रहा है इसलिये शराब तो त्याज्य है ही, परन्तु घी, दूध जैसे शरीर-पोषक निर्दोष पदार्थ भी अपनी जीवनचर्या को अच्छी और विकसित बनाने की दृष्टि से सप्रमाण लिए जायँ वहीं तक वे हितावह हैं । ५. सर्दी में, गरमी में अथवा विविध आसन आदि से शरीर को कसना कायक्लेश है। किसी समय कोई शारीरिक कष्ट आ पड़े तो उस समय मनुष्य उसे सहन कर सके-समभाव रख सके इस दृष्टि से इस तप का विधान है । बाकी, शरीर को सिर्फ दुःख देने के लिये अथवा दूसरों पर प्रभाव डालने के लिये, दूसरों को चकित करने के लिये अथवा दूसरे की दया उत्तेजित करके कुछ प्राप्त करने की इच्छा से यदि कायक्लेश किया जाय अथवा दूसरों पर अनुचित दबावरूप हो तो वह अज्ञान-चेष्टा है । जितने अंश में वह चित्तशुद्धि करने में अर्थात् आसक्ति, दोष तथा कषाय-विकारों को दूर करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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