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________________ द्वितीय खण्ड १३३ में उपकारक होता है उतने ही अंश में वह सार्थक है, तप है । अतः अमुक कायक्लेश के सहने में जीवनशुद्धि अथवा आत्महित का लाभ होना सम्भव है या नहीं यह विचारना आवश्यक है । ६. बाधारहित एकान्त स्थान में आत्मलाभ के लिये रहना विविक्तशय्यासनसंलीनता है । आभ्यन्तर तप : श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के ९१वें श्लोक की वृत्ति में कहते हैं कि "निर्जराकरणे बाह्याच्छ्रेष्ठमाभ्यन्तरं तपः ।" अर्थात् कर्मों की निर्जरा करने के लिये बाह्य तप की अपेक्षा अभ्यन्तर तप श्रेष्ठ है ।। अभ्यन्तर तप के भी छह भेद -१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वेयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. व्युत्सर्ग और ६. ध्यान । १. लिए हुए व्रत में होनेवाले प्रमादजन्य दोषों का जिससे शोधन किया जाय वह प्रायश्चित्त है । २. ज्ञान आदि सद्गुणों के बारे में बहुमान रखना विनय है । ३. योग्य साधन प्रस्तुत करके अथवा अपने आपको काम में लगा कर सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्त्य' है । ४. ज्ञानप्राप्ति के लिए विविध प्रकार का अभ्यास करना स्वाध्याय है । अहंत्व और ममत्व का त्याग करना व्युत्सर्ग है । ६. चित्त के विक्षेप दूर कर के उसकी एकाग्रता सिद्ध करना ध्यान है । इसमें विनय ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, और उपचारविनय इस तरह चार प्रकार का है । ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास चालु रखना यह ज्ञान का सच्चा विनय है । तत्त्व की यथार्थ प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन से चलित न होना, उसमें आनेवाली शंकाओं का यथाशक्ति संशोधन करके निःशंकता लाना यह दर्शनविनय है । चारित्र में चित्त का समाधान रखना १. जैन-धर्म दूसरे की सेवा करने को भी तप मानता है और तप के विशिष्ट भेदों की परिगणना में उसका समावेश करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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