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जैनदर्शन चारित्रविनय है । किसी भी सद्गुण के कारण जो व्यक्ति अपने से श्रेष्ठ हो उसका योग्य विनय करना-उसकी ओर समुचित आदरभाव रखना उपचारविनय है । विनय गर्व तथा दूसरों की ओर होनेवाली तिरस्कारवृत्ति के त्याग का सूचन करता है। उच्च अथवा नीच माने जानेवाले की तरफ भी मैत्रीपूत सभ्यता रखनी चाहिये । विनय यानी मृदु-नम्र व्यवहार ।
ध्यान :
मन की एकाग्रता का नाम ध्यान है । आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इस प्रकार ध्यान के चार भेद हैं। इनमें से धर्म और शुक्ल ध्यान कल्याणकारक तथा मोक्षसाधक होने से तप के भेदरूप हैं। आर्त एवं रौद्र ध्यान दुर्ध्यान हैं, दुर्गतिकारक हैं, अतः त्याज्य हैं । यहाँ इन चार ध्यानों को हम संक्षेप में देखें ।
१. आत-ध्यान :
आर्तध्यान दुःखमय चिन्तनरूप है । अप्रिय वस्तु प्राप्त होने पर उससे छुटकारा पाने के लिए जो उत्कट चिन्ता की जाती है वह प्रथम आर्तध्यान है । बीमारी या दुःख आने पर उसे दूर करने की व्यग्रतापूर्ण चिन्ता-सतत चिन्ता दूसरा आर्तध्यान है । प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए जो उत्कट चिन्ता की जाती है वह तीसरा आर्तध्यान है । अप्राप्ति के लिए संकल्प करना अथवा व्याकुल होना चौथा आर्तध्यान है । 'अति' अर्थात् पीडा या दुःख, तत्सम्बन्धी ध्यान वह आर्तध्यान, अथवा आर्त का—पीडित का अपना ध्यान वह आर्तध्यान अर्थात् दुःख से विह्वल या तृष्णापीड़ित होना वह आर्तध्यान । दुःख की उत्पत्ति के मुख्य चार कारण है : अनिष्ट वस्तु का संयोग, प्रतिकूल वेदना, इष्ट वस्तु वियोग और भोग की लालसा । इन कारणों पर से आर्तध्यान के चार भेद किए गए हैं : १. अनिष्टसंयोग आर्तध्यान, २. रोगचिन्ता आर्तध्यान, ३. इष्टवियोग आर्तध्यान, और ४. अप्राप्त भोग प्राप्त करने का तीव्र संकल्प वह निदान-आर्त्तध्यान । [निदान अर्थात् संकल्प]
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