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द्वितीय खण्ड
२. रौद्र - ध्यान :
रौद्र अर्थात् क्रूर अथवा कठोर, ऐसे चित्त अथवा जीव का ध्यान वह रौद्रध्यान । हिंसा, असत्य, चोरी और विषयसंरक्षण के लिए जो क्रूरतापूर्ण चिन्तन किया जाता है वह रौद्रध्यान । इस पर से हिंसानुबन्धी, अनृतानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी- इस प्रकार रौद्रध्यान के चार भेद किए गए हैं जो क्रमशः हिंसामय चिन्तारूप, असत्यमय चिन्तारूप, चौर्यमय चिन्तारूप और विषयसंरक्षणचिन्तारूप हैं । पाप में अथवा पाप से उपलब्ध लाभों में आनन्दरूप-उल्लासरूप वृत्ति रौद्रध्यान है । अतः उपर्युक्त हिंसानुबन्धी आदि चार भेद अनुक्रम से हिंसानन्द, अनृतानन्द, चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द रूप हैं । ( कुशीलानन्द का समावेश परिग्रहानन्द में किया जा सकता है और महाव्रतों में ब्रह्मचर्य का निर्देश जिस प्रकार अलग किया गया उस प्रकार यह अलग भी गिना जा सकता है 1)
३. धर्म - ध्यान :
यह आत्मकल्याणरूप ध्यान है । जो कुछ एकाग्रभूत सच्चिन्तन (धर्मरूप चिन्तन, कल्याणरूप चिन्तन) हो वह धर्मध्यान है । उदाहरणार्थ, (१) वीतराग महापुरुष की क्या आज्ञा है ? वह कैसी होनी चाहिए ? इसकी परीक्षा करके वैसी आज्ञा की खोज के लिए मनोयोग देना 'आज्ञाविचय' धर्मध्यान है । (२) रागादि दोषों के स्वरूप की और उन दोषों से हम किस प्रकार दूर हो सकते हैं इसकी विचारणा में जो मनोयोग दिया जाता है वह 'अपायविचय' धर्मध्यान है । (४) लोक के स्वरूप का विचार करने में मनोयोग देना 'लोकसंस्थानविचय' धर्मध्यान है ।
४. शुक्ल - ध्यान :
यह बहुत उच्च भूमिका का मोहनीय कर्म की उपशान्त अथवा क्षीण होनेवाली अवस्था का अतिसूक्ष्म ध्यान है । इसके स्वरूप का ख्याल पढ़ने से अथवा सुनने मात्र से आना कठिन है । ध्याता जब परमाणु आदि जड़
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१. शुक्लध्यान के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र के ११वें प्रकाश के ११वें श्लोक की वृत्ति में ।
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