________________
१३६
जैनदर्शन
अथवा आत्मरूप चेतन ऐसे एक द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति, नाश, मूर्तत्व अमूर्तत्व आदि अनेक पर्यायों का विविध दृष्टि-बिन्दुओं से भेदप्रधान चिन्तन करता है एक 'योग' पर से दूसरे ‘योग अथवा शब्द पर से अर्थ पर और अर्थ पर से शब्द पर जाकर चिन्तनपरायण बनता है तब वैसे ध्यान को 'पृथक्त्ववितर्क सविचार' नाम का शुक्ल-ध्यान कहते हैं । इस नाम का अर्थ इस प्रकार है : "पृथक्त्व' यानी भेद, और भेदप्रधान वितर्क (चिन्तन) वह पृथक्त्ववितर्क । यह एक 'योग पर से दूसरे 'योग' पर अथवा शब्द पर से अर्थ (द्रव्य) पर और अर्थ पर से शब्द पर-इस प्रकार विचरणशील होने से 'सविचार' कहलाता है [यहाँ पर 'विचार' का अर्थ विचरण है । इस प्रकार यह ध्यान विचरणशील होने पर भी एकद्रव्यविषयक होने से मनःस्थैर्यरूप है । जब यह भेदप्रधान मिट कर अभेदप्रधान चिन्तनरूप बनता है और वह भी एक ही पर्याय पर, तब वह ‘एकत्ववितर्क' कहलाता है। यह उपर्युक्त ध्यान की भाँति विचरणशील न होने से 'अविचार' (विचरणरहित) कहलाता है । पहली श्रेणी के शुक्लध्यान की अपेक्षा यह दूसरी श्रेणी का शुक्लध्यान अतिप्रखर है, क्योंकि शब्द, अर्थ और योगों में विचरणशील न होकर किसी एक ही पर्याय पर पूर्णरूप से यह अटल रहता है । प्रथम शुक्लध्यान का अभ्यास दृढ होने के बाद ही इस दूसरे शुक्ल ध्यान के लिये समर्थ हुआ जा सकता है । जिस प्रकार सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त सर्प आदि के विष को
यदि प्रथम संहननवाले को शुक्लध्यान का अधिकार है तो आज के सेवार्तसंहननवालों को शुक्ल ध्यान का उपदेश क्यों दिया जाता है ? ऐसा प्रश्न पूछकर स्वयं उसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यद्यपि वर्तमानयुगीन मनुष्यों को शुक्ल-ध्यान का अधिकार नहीं है, फिर भी सम्प्रदाय (इस विषय का ज्ञानसम्प्रदाय टूटने न पाए इसलिये इसका उपदेश दिया जाता है । योगशास्त्र की समाप्ति करते हुए आचार्य महाराज
मोक्षोऽस्तु माऽस्तु यदि वा परमानन्दस्तु वेद्यते स खलु ।
यस्मिन्निखिलसुखानि प्रतिभासन्ते न किञ्चिदिव ॥ इस अन्तिम श्लोक (बारहवें प्रकाश के ५१वें श्लोक) से कहते हैं कि मोक्ष हो या न हो, परन्तु चित्त की स्थिर दशा में उस परमानन्द का संवेदन होता है जिसके आगे समग्र सुख मानो कुछ भी नहीं है ऐसा प्रतीत होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org