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द्वितीय खण्ड मन्त्रादि उपायों द्वारा दंश के स्थान पर एकत्रित किया जाता है उसी प्रकार समस्त विश्व के पदार्थों में भ्रमणशील अस्थिर मन को ध्यान द्वारा किसी एक अणुपर्याय पर लाकर स्थिर किया जाता है । यह स्थिरता सुदृढ होने पर (पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँचने पर) मन पूर्णरूप से शान्त हो जाता है । जिस प्रकार ईंधन शेष न रहने पर अथवा ईंधन का सम्बन्ध समाप्त हो जाने पर आग स्वयमेव बुझ जाती हैं उसी प्रकार मन उपर्युक्त क्रम से एक अणु पर पूर्णरूप से स्थिर होते ही उसका चाञ्चल्य सर्वथा दूर कर होकर वह पूर्ण शान्त बन जाता है । इसके परिणामस्वरूप मोहावरण का संयोग सर्वथा नष्ट हो जाने से सम्पूर्ण ज्ञानदर्शनावरण तथा अन्तराय कर्म हट जाते हैं जिससे केवलज्ञानरे (सर्वज्ञाता) प्रकट होता है । इस तरह शुक्ल-ध्यान के दूसरे भेद के बल पर तत्काल सार्वज्ञ्य प्रकट होता है । केवली भगवान् अपने निर्वाण के समय योगनिरोध के कार्यक्रम में जब सूक्ष्म शरीर-योग का अवलम्बन लेकर मन एवं वचन के सूक्ष्म योग का निरोध करते हैं तब उस अवस्था को 'सूक्ष्मक्रिय' ध्यान कहते हैं । यह अवस्था ध्यान (चिन्तन) रूप अवस्था नहीं है, फिर भी इस अवस्था को जो 'ध्यान' कहा है वह एक रूढि है । इसके बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि मन की स्थिरता जिस प्रकार 'ध्यान' है उसी प्रकार शरीर की स्थिरता भी ध्यान' कही जा सकती है। इस अवस्था में श्वासोच्छवास जैसी सूक्ष्म शरीरक्रिया ही अवशिष्ट रहने से इसे 'सूक्ष्मक्रिय' कहते हैं । यह क्रिया भी जब बन्द हो जाती है और आत्मप्रदेशों की सम्पूर्ण निष्कम्पता प्राप्त होती है तब उस अवस्था को 'समुच्छिन्नक्रिय' ध्यान कहते हैं । इस क्षणभर
१. त्रिजगद्विषयं ध्यानादणुसंस्थं धारयेत् क्रमेण मनः ।
विषमिव सर्वाङ्गगतं मन्त्रबलान्मान्त्रिको दंशे ॥१९॥ अपसारितेन्धनभरः शेषस्तोकेन्धनोऽनलो ज्वलितः । तस्मादपनीतो वा निर्वाति यथा मनस्तद्वत् ॥२०॥
–हेमचन्द्र, योगशास्त्र प्रकाश ११॥ २. ग्यारहवें गुणस्थान में होनेवाले दूसरे प्रकार के शुक्लध्यान की अपेक्षा बारहवें गुणस्थान
में होनेवाला शुक्लध्यान अत्यधिक प्रखर होता है । वस्तुतः बारहवें गुणस्थान में मनःस्थैर्यरूप शुक्लध्यान की पूर्णता होती है । इसीलिये वह तत्काल ही केवलज्ञान प्रकट करती है।
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