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जैनदर्शन
की अवस्था में आत्मा कर्ममुक्त और देहमुक्त होकर ऊर्ध्व गमन करता हुआ क्षणमात्र में लोक के अग्रभाग पर पहुँच जाता है और वहीं स्थिर होता है । ध्यान का विवेचन पूर्ण हुआ और इसके साथ ही षट् कर्मगत पाँचवें कर्म तप का विवेचन भी पूर्ण हुआ । अब —
दान :
दान न्यायपूत द्रव्य का योग्य स्थान एवं योग्य पात्र में कर्तव्य है । दान जितने प्रमाण में किया जाता है उतने प्रमाण में वह त्याग है । त्यागी बनकर शुद्ध परोपकारपरायण बनना दान की पराकाष्ठा है । त्यागी मनुष्य अपने निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त कर के, किसी प्रकार की संग्रह करने की बुद्धि रखे बिना अपनी समग्र शक्ति जीवन के उच्च आशय के पीछे लगाकर स्वपरहित के कार्य में संलग्न रहता है । वह समाज के पास से कम से कम लेकर अधिक से अधिक समाज को एक या दूसरे रूप में देता है ऐसे त्यागी मनुष्य के पास जो नहीं होता उसका दान तो वह दे ही नहीं सकता, परन्तु वह अपनी साधना और विकसनशील शक्तियों का लाभ जब जनता को निर्मल वात्सल्य भाव से देता है तब किसी धनिक- महाधनिक के असंख्य धन दान की अपेक्षा इस त्यागी का दान कहीं अधिक श्रेष्ठ है । महावीर, बुद्ध और ऐसे दूसरे तेजस्वी त्यागी इतने महान् दाता हैं कि धन का बड़े से बड़ा दान करनेवाले दुनिया के बड़े-बड़े श्रीसम्पन्न पुरुषों की अपेक्षा वे कहीं अधिक ऊँचे हैं ।
समझदार धनी अपने धन का दान प्रायश्चित्त के रूप में देता है, अपना कर्तव्य तथा स्वपरकल्याण का मार्ग समझकर देता है । बड़ाई के लिये दिया जानेवाला दान बड़ाई में उड़ जाता है । जिस प्रकार धन अथवा वस्तु का दान होता है उसी प्रकार वचन से किसी को अच्छा मार्ग बताना, अच्छा परामर्श देना तथा वचन द्वारा किसी का भला करना, किसी का हित साधना भी दान है । शिष्टमिष्ट वाणीव्यवहार मिष्ट दान है । इसी प्रकार अपने शरीर से किसी का भला करना, किसी के हित के काम में सक्रिय सहायक होना भी दान है । इस तरह दान-धर्म का पालन अनेक प्रकार से किया जा सकता है ।
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