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________________ ३०० जैनदर्शन की प्रेरकता में नहीं मानते । श्रमण-संस्कृति तो उसे मानती ही नहीं । मन-वचन-काय के शुभ-अशुभ कार्यों से शुभाशुभ कर्म उपार्जित होते हैं-कर्म के इस सामान्य और सुप्रसिद्ध नियम को ध्यान में रख कर मनुष्य यदि स्वयं अच्छे कार्य करे, कराए और अच्छे कर्म का अनुमोदक बने तो अपना भविष्य अच्छा और सुखकर बना सकता है । इसके विपरीत-दूसरे की निन्दा करने वाला, कटु एवं क्रूर मजाक उड़ानेवाला कटु एवं और बीभत्स शब्द बोलनेवाला तथा असत्यभाषी' मनुष्य अपने इस वाणी-पाप के कारण मूक गूंगा होता है । मानसिक शक्ति का दुरुपयोग करनेवाला पगल होता है । हाथ का दुरुपयोग करने वाला अपाहिज होता है। पग का दुरुपयोग करनेवाला लंगडा होता है। व्यभिचारी पुरुष नपुंसक होता है । अतः सर्वाङ्ग-सुखी होने की इच्छावाले को मनसा, वाचा, कर्मणा सत्कार्य करते रहना चाहिए । दान में यदि कीर्ति की कामना हो तो दान का आनन्द उड़ जाता के कर्मों का फल वह स्वयं नहीं देता किन्तु यह सब स्वभाव से होता है । स्वभाव से अर्थात् अपनी वृत्ति से या अपनी प्रकृति से अर्थात् जीव की वृत्ति से अथवा जीव और कर्म को प्रकृति से । १. मन्मनत्वं काहलत्वं मूकत्वं मुखरोगिताम् । वीक्ष्याऽसत्यफल कन्यालीकाद्यसत्यमुत्सृजेत् ॥५३॥ ___ -हेमचन्द्र योगशास्त्र, २ रा प्रकाश । अर्थात्-मृषावाद के पाप के कारण मूंगापन, गूंगापन तथा मुख के रोग प्राप्त होते है। इसी श्लोक की वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र ने नीचे का श्लोक उद्धृत किया है । मका जडाश्च विकला वाग्हीना वाग्जुगुप्सिताः । पूतिगन्धमुखाश्चैव जायन्तेऽनृतभाषिणः ॥ २. नपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे । भवेन्नराणां स्त्रीणां चाऽन्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥१०३॥ ___ -हेमचन्द्र, योगशास्त्र २ रा प्रकाश । अर्थात् —व्यभिचार के पाप से भवान्तर में नपुंसकत्व, तिर्यग्योनि में जन्म और दौर्भाग्य प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002971
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorNyayavijay
Author
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size17 MB
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