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चतुर्थ खण्ड
३०१ है । सार्वजनिक उपयोग के लिये अपने बंगले का दान देनेवाला उस बँगले पर खास अपने नाम का शिलालेख लगाए तो इससे कीर्ति-मोह के परिणामस्वरूप ऐसा भी हो सकता है कि वह दाता बाद के किसी जन्म में बँगलेवाले किसी धनिक के घर जन्म ले, परन्तु कार्य चिन्ता का भार उसके मन पर इतना अधिक रहे कि उस बँगले में रहने का आनन्द ही उसे न मिल सके ।
कभी-कभी देखा जाता है कि मनुष्य निरपराध होने पर भी किसी भयंकर आपत्ति में फँस जाता है और साथ ही उसमें से बाल-बाल बच भी जाता है । इसका कारण यह है कि जिस मनुष्य ने इस जन्म में या पूर्वजन्म में जिस तरह का अपराध किया ही नहीं उसका उस दण्ड देने के लिये कोई भी व्यक्ति या सरकार समर्थ नहीं है, क्योंकि कर्म का समर्थ सिद्धान्त उसका रक्षण करता है।
नहीं किए हुए अपराध के लिये जब किसी को अपराधी प्रमाणित करके दण्ड दिया जाता है तब ऐसे दण्ड का कारण यह हो सकता है कि उस मनुष्य ने उस प्रकार का अपराध इसी जन्म में पहले कभी किया होगा अथवा पिछले किसी जन्म में वैसा अपराध किया होगा, परन्तु युक्ति प्रयुक्ति द्वारा अपने अपराध को उसने छुपा रखा होगा । परन्तु कर्म के नियम ने उसकी खबर ली । इसलिये वह कर्म देर से ही सही, किन्तु इस तरह अपना फल उसे चखाने के लिये तैयार हुआ ।
कर्म का नियम क्रिया-प्रतिक्रिया (क्रिया की प्रतिक्रिया) का नियम है । दूसरे को किया गया अन्याय किसी-न-किसी रूप में वापस मिलता ही है। अच्छी क्रिया का अच्छा और खराब क्रिया का खराब परिणाम अचूक मिलता है ।
हिंसक, विश्वासघातक, पापी, अधर्मी मनुष्य सुखी तथा अच्छे और धर्मी मनुष्य दुःखी दिखाई देता है इसके बारे में हमें यह समझना चाहिए कि एक मनुष्य के पास पहले के उपार्जित-इकट्ठे किए हुए गेहूँ पड़े हैं जिससे वह वर्तमान में कोदों का धान बोने पर भी वर्तमान में पूर्वोपार्जित गेहूँ का
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