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चतुर्थ खण्ड
२९९ पत्थर आदि पदार्थों के एकत्रित होने से छोटे-बड़े टीले अथवा पहाड़ आदि का बनना, यहाँ-वहाँ के जलप्रवाह के मिलने से उनका नदी रूप से बहना, वन का वनराजि से हरा-भरा हो जाना, भाप का पानी के रूप में बरसना और फिर पानी की भाप हो जाना ।।
यह बात पहले अच्छी तरह से कही गई है कि 'कर्म' जड होने पर भी जीव के चेतन के वशिष्ठ संसर्ग से उसमें एक ऐसी शक्ति पैदा होती है जिससे वह अपना अच्छा-बुरा फल नियत समय पर जीव को चखाता है । जीव मात्र चेतन है और इस चेतन के सम्बन्ध के बिना जड़ कर्म फल देने में समर्थ नहीं होते । चेतन जैसा कर्म करता है उसी के अनुसार उसकी बुद्धि होती है । इसी से बुरे कर्म के बुरे फल की इच्छा न होने पर भी वह ऐसा काम कर बैठता है जिससे उसे अपने कर्म के अनुसार फल मिल जाता है । कर्म का करना एक बात है और फल न चाहना दूसरी बात है । किए हुए कर्म का फल न चाहने मात्र से वह फल मिलना रुक नहीं जाता । सामग्री एकत्रित होने पर कार्य स्वतः होने लगता है । दृष्टान्त के तौर पर, यदि एक मनुष्य धूप में घूमें, गरम चीजें खाए और ऐसा चाहे कि मुझे प्यास न लगे तो क्या प्यास लगे बिना रहेगी ? तात्पर्य यह है कि जीव के अध्यवसाय के अनुसार विचित्र द्रव्य के संयोगरूप 'संस्कार' उसमें पड़ते हैं । इसी को कर्मबन्ध कहते है और यह (कर्मबन्ध) ही चेतन जीव के संसर्ग से सबल हो जाने के कारण अपना फल जीव पर प्रगट करता है । इस प्रकार कर्म से प्रेरित होकर जीव कर्म के फल भुगतता है । कर्मवादी जनों का ऐसा मन्तव्य होने से जीव को उसके कर्मों का फल भुगतने में ईश्वर प्रेरणा मानने की उन्हें आवश्यकता नहीं रहती । सांख्य और मीमांसक भी ईश्वर
१. न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।
-भगवद्गीता, अ, ५, श्लो. १४. अर्थात्--ईश्वर लोगों का कर्तृत्व नहीं करता, उनसे कर्म नहीं कराता अथवा उनके कर्मों का सर्जन नहीं करता, तथा जीवों के कर्मों के साथ फल का सम्बन्ध स्थापित नहीं करता अर्थात् जीवों के कर्मों को फल देने के लिये प्रेरित नहीं करता अथवा जीवों
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