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जैनदर्शन
ऐसा है कि एक के मानने पर बाकी के सब उसके साथ आ जाते हैं, अर्थात् एक का स्वीकार करने पर पाँचो का स्वीकार हो जाता है और एक को स्वीकृत न किया जाय तो पाँचों ही अस्वीकृत हो जाते हैं । आत्मा का स्वीकार किया तो पुनर्जन्म का स्वीकार हो ही गया । इसके साथ पाप पुण्यरूप कर्म भी आ गए । आत्मा की पूर्ण शद्धि ही मोक्ष है, अतः मोक्ष का स्वीकार भी आत्मा के साथ ही हो जाता है । और मोक्ष ही ईश्वरत्व है अर्थात् परम शुद्ध मुक्त आत्मा ही परमात्मा है और वही ईश्वर है । अत: ईश्वरवाद भी आत्मवाद में ही आ जाता है ।।
ईश्वर की सिद्धि के लिये लम्बे पारायण की आवश्यकता नहीं है । थोड़े में ही वह समझा जा सकता है । जगत् में जिस प्रकार मलिन दर्पण का अस्तित्व है उसी प्रकार शुद्ध दर्पण का भी अस्तित्व है, अथवा जिस प्रकार मलिन सुवर्ण का अस्तित्व है उसी प्रकार शुद्ध सुवर्ण का भी अस्तित्व है ही । इस प्रकार यदि अशुद्ध आत्मा का अस्तित्व है तो शुद्ध (पूर्ण शुद्ध) आत्मा की विद्यमानता भी न्यायसंगत है । जिस तरह मलिन दर्पण पर से शुद्ध स्वच्छ दर्पण का अथवा मलिन सुवर्ण पर से शुद्ध सुवर्ण का अस्तित्व ध्यान में आता है (और अपनी आँखों से देखा भी जा सकता है), उसी तरह अशुद्ध आत्मा पर से शुद्ध (पूर्ण शुद्ध) आत्मा के अस्तित्व की बात भी हृदय में उतर सकती है । अशुद्ध वस्तु शुद्ध हो सकती है तो अशुद्ध आत्मा भी शुद्ध बन सकता है । जीवों की अंशतः शुद्धि देखी जाती है तो उनकी पूर्ण शुद्धि भी सम्भव है और जहाँ वह सिद्ध हुई है वही परमात्मा है, और जो उसे सिद्ध करेगा वह परमात्मा होगा । परमात्म-पद की प्राप्ति ही ईश्वरत्व का प्रकटीकरण है। यही ईश्वरपद है ।
[१३] यह जगत् किसी समय नया बना हो ऐसा नहीं है । वह हमेशा से है । हाँ, इसमें परिवर्तन होता रहता है । अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनमें मनुष्य आदि प्राणीवर्ग के प्रयत्न की अपेक्षा होती है और अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनेमें किसी के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रहती । वे जड़ तत्त्वों के विविध संयोगों से प्राकृतिक प्रयोगों से बनते रहते हैं । उदाहरणार्थ, मिट्टी,
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